Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

छोटे बजट बनाम बड़े बजट की फिल्में: भविष्य एवं सामाजिक संदर्भ

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छोटे बजट बनाम बड़े बजट की फिल्में: भविष्य एवं सामाजिक संदर्भ

 

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  भारत में हमेशा ही दोनों प्रकार की फिल्में बनती रही हैं। 1970 के दशक में राजश्री पिक्यर्स, एन.सी.सिप्पी एवं श्याम बेनेगल छोटे बजट की फिल्में बनाते थे। रामसे ब्रदर्श भी छोटे बजट की फिल्में बनाते थे जबकि अमिताभ बच्चन को लेकर या अन्य बडे सितारों को लेकर बड़े बजट की फिल्में भी बनती थी। पचास और साठ के दशक में भी ट्रेंड कुल मिलाकर कुछ ऐसा ही था।

कॉरपोरेट कंपनियां पहले भी थीं। बी.एन. सरकार का न्यू थियेटर्स और हिमांशु राय का बाम्बे टॉकिज के साथ वाडिया ब्रदर्श का नाम लिया जा सकता है। लेकिन उदारीकरण की प्रक्रिया के चलने के बाद मल्टीप्लेस  थियेटरों का उदय हुआ और ओवर-सीज टेरीटरी कर विकास हुआ। अनिवासी भारतीय विदेशों में अपनी सांस्कृतिक अस्मिता की अभिव्यक्ति भारतीय हिन्दी फिल्मों को संरक्षण देकर करने लगा इससे एकल ठाठिया सिनेमा या सिंगल स्क्रीन थियेटर एवं हिन्दी प्रदेशों के दर्शकों को नजरअंदाज किया जाने इससे भारतीय सिनेमा में महत्वपूर्ण परिवर्तन की शुरूआत हुई। इसके परिणाम स्वरूप हिन्दी एवं भोजपुरी में छोटे बजट की फिल्मों की बाढ़ आने लगी। इसके कारण के रूप में सैटेलाइट सिनेमा अधिकार और ओवरसीज टेरीटरी का बढ़ता प्रभाव तथा कस्बाई एकल ठाठिया दर्शकों की अभिरूचि के घटते महत्व की चर्चा की जा सकती है। इससे फिल्म की कहानी बदल रही है और अतिरिक्त आय भी हो रहा है। इसका दूसरा कारण निर्माण एवं वितरण क्षेत्र में कॉरपोरेट का उदय माना जा सकता है। हिमांशु राय की 'बांबे टॉकीज' और बी.एन. सरकार की 'न्यू थियेटर्स' तथा वाडिया ब्रदर्स के जमाने में भी कॉरपोरेट का उद्येश्य सामाजिक प्रतिबध्दता वाली साहित्य आधारित फिल्मों का निर्माण था। समकालीन कॉरपोरेट संस्कृति का उद्येश्य सांस्कृतिक उद्योग में पैसा निवेश कर ज्यादा पैसा कमाना और ग्लैमर से जुड़ना अधिक है। परन्तु रंग दे बसंती, तारे जमीन पर और मुन्नाभाई श्रृंखला की फिल्में भी कॉरपोरेट कृतियां हैं यह सुखद स्थिति है।

कस्बाई सिनेमा अब भी कहानी को पकड़े हुए है जबकि मल्टीप्लेक्स सिनेमा तकनीक को कथा से ऊपर रखता है। अब इंटरनेट एवं डीवीडी मार्केट के लिए भी छोटे बजट की फिल्में बन रही है। ऐसी फिल्मों का प्रचार एक दर्शक दूसरे दर्शक से बात-चीत के दौरान माउथ टू माउथ करता है। सिनेमा सोसाइटी मूवमेंट 1970 के दशक में काफी शक्तिशाली माध्यम था। अब उसकी जगह इंटरनेट ने लिया है।

मल्टीप्लैक्स ने भारतीय सिनेमा को अनेक स्तरों पर प्रभावित किया है।'ए वेडनेश डे' और 'भेजा फ्राई ' जैसी फिल्मों की सफलता की लहर मल्टीप्लैक्स से ही चलकर कस्बों और एकल ठाठिया तक पहुंची है। मल्टीप्लैक्स के द्वारा ही दर्शक ने अच्छे बिंब और संपूर्ण ध्वनि के आनंद को समझा है। मल्टी संकुल में जाकर दर्शक बिना वीजा और पासपोर्ट के पश्चिम के वैभव की झलक तीन घंटे के लिए देख पाता है। सारे मल्टीप्लैक्स की अधिकतय आय पॉपकॉर्न, समोसे, शीतल पेय और पार्किंग से है तथा न्यूनतम सिनेमा देखने के टिकट बिक्री से आती है।

संदर्भ के लिए यह जानना आवश्यक है कि वर्ष 1947 में केवल 280 फिल्में प्रदर्शित हुई थी उनमें हिन्दी में बनी फिल्मों की संख्या बहुत थी। अब मुंबई में बनी हिन्दी फिल्मों की संख्या प्रतिवर्ष 150 होती है और चार दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनी फिल्मों का योग लगभग 600 होता है। कुछ जमा 10,000 सिनेमाघरों में अधिकतम सिनेमाघर दक्षिण भारत में हैं। चेन्नई भारतीय सिनेमा उद्योग का मुबंई से ज्यादा महत्वपूर्ण केन्द्र है। रजनीकांत को भारतीय सितारों में सबसे ज्यादा पारिश्रमिक मिलता है। परन्तु भारतीय सिनेमा में दर्शकों के हिसाब से हिन्दी सिनेमा का महत्व सबसे ज्यादा है।

हर युग का अपना संघर्ष, अपना सुख - दुख होता है और विद्रोह के तेवर भी अलग होते हैं। दर्द से भिड़ने के तौर - तरीके बदल जाते हैं। वर्तमान युग में सफलता को नैतिकता से ऊपर माना जाता है। अब सफलता एकल प्रयास नहीं है। आज सफलता की फैक्टरियां हैं जो 'आर्डर' आने पर मनचाहा 'माल' गढ़ देने का दावा करती हैं। तब भी महेन्द्र सिंह धोनी, सचिन तेंदुलकर, ए. आर. रहमान, अमिताभ बच्चन एवं लता मंगेश्कर एकल प्रयास से ही सफल होते रहे हैं। ये फैक्टरियों के उत्पाद नहीं हैं।

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