Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

छोटे बजट बनाम बड़े बजट की फिल्में: भविष्य एवं सामाजिक संदर्भ

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छोटे बजट बनाम बड़े बजट की फिल्में: भविष्य एवं सामाजिक संदर्भ

 

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 राजनीति, फिल्म निमार्ण एवं क्रिकेट के खेल में टीम वर्क की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसमें एकल प्रयास का सीमित महत्व है। यदि भारतीय राजनीति में अब किसी भी राजनीतिक दल को अखिल भारतीय सफलता नहीं मिल रही है तो सिनेमा में भी अखिल भारतीय सफलता अक्सर नहीं मिल रही है। इस दृष्टि से क्रिकेट के क्षेत्र में अपवाद की स्थिति है। क्षेत्रीय राजनीतिक दल छोटे बजट की फिल्मों की तरह हैं जबकि कांग्रेस, भाजपा  एवं माकपा जैसी राष्ट्रीय दल बड़े बजट की फिल्मों की तरह हैं। बड़े बजट की फिल्में उत्तर भारतीय थाली की तरह का मनोरंजक व्यंजन परोसती हैं। इसमें अंतर्विरोधी स्वाद के व्यंजन होते हैं। हर व्यंजन अलग - अलग दर्शक समूह को ध्यान में रखकर परोसा जाता है। लेकिन हर व्यंजन को कलात्मक कुशलता से एक नाजुक संतुलन बैठाना होता है। थोड़ी सी चूक होते ही बड़े बजट की फिल्म धड़ाम से गिरती है। अत: ऐसी फिल्मों की पटकथा लिखना या निर्देशन करना जोखिम का काम होता है। इसके लिए जिन्दगी और समाज की अंर्तधारा को समझने का विराट अनुभव चाहिए जो भारतीय सिनेमा की परंपरा में गुरू - शिष्य श्रृंखला से प्राप्त होता रहा है। आजकल गुरू - शिष्य श्रृंखला कमजोर हुई है और नये निर्देशकों के हाथ में बड़ी बजट की फिल्मों का निर्देशन दिया जाने लगा है।
छोटे बजट की फिल्मों में प्रयोग की ज्यादा गुंजायश होती है। आर्थिक जोखिम कम होता है। परन्तु छोटे बजट की फिल्मों की सफलता भी कलात्मक मनोरंजन की क्षमता पर ही निर्भर करता है। फीचर फिल्म और डाक्युमेंटरी फिल्म का अंतर हमेशा कायम रहता है। यथार्थवादी फिल्मों की अखिल भारतीय सफलता भारत में हमेशा संदिग्ध होती है चाहे उसका बजट छोटा हो या बड़ा। फिचर फिल्म मूलत: मनोरंजक कथा का माध्यम है। इसमें अप्रत्यक्ष शिक्षा की हमेशा गुंजायश होती है। हिडेन एजेंडा की हमेशा गुंजायश होती है। लेकिन प्रत्यक्ष रूप से उसका सरस एवं मनोरंजक होना आवश्यक है। छोटे बजट की फिल्मों के प्रोमोशन पर भी उसी तरह ध्यान दिया जाना जरूरी होता है जिस तरह बड़े बजट की फिल्मों के प्रोमोशन पर ध्यान दिया जाता है। लेकिन इनका बजट अलग - अलग प्रकार का होता है। इनके माध्यम अलग - अलग प्रकार के होते हैं। छोटे बजट की फिल्मों को पहले 'फिल्म सोसायटी मूवमेंट' तथा फिल्म कल्बों का सबसे बड़ा सहारा होता था। तमिलनाडु एवं बंगाल तथा केरल में छोटे बजट की राजनीतिक फिल्मों का बोलबाला रहा है। इनको क्रमश: डी. एम. के फिल्मस एवं इप्टा फिल्मस कहा जाता है। इन संगठनों के कार्यकत्ता फिल्मों के प्रोमोशन में भूमिका निभाते थे। अच्छी और सार्थक या कलात्मक फिल्मों को दर्शकों द्वारा भी प्रोमोट किया जाता रहा है, इसे माउथ- टू - माउथ पब्लिसिटी कहा जाता है। अखबारों एवं पत्रिकाओं के फिल्म समीक्षक भी फिल्मों को प्रोमोट करते रहे हैं। आजकल इंटरनेट के द्वारा भी फिल्मों को प्रोमोट किया जाता है। टी. वी. फिल्म प्रोमोशन का सबसे महंगा एवं सबसे सशक्त माध्यम बन गया है। बड़े बजट की फिल्में मूलत: टी. वी. द्वारा ही अपनी फिल्मों को प्रोमोट करती हैं। फिल्मों के प्रोमोशन का एक अन्य माध्यम फिल्म पोस्टर रहे हैं। यह सबसे पुराना माध्यम रहा है। इसका महत्व आज भी कायम है।

यह बात ध्यान देने लायक है कि जिस तरह रिलीज के समय फिल्मों को प्रोमोट किया जाता है, करीब - करीब उसी तरह चुनाव से पहले राजनीतिक दलों को भी प्रोमोट किया जाता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे प्रचार या प्रोपगैंडा कहा जाता है। मीडिया की भाषा में इसे विज्ञापन कहा जाता है। पोस्टर, अखबार, टी. वी. कार्यकर्त्ता राजनीतिक दलों का उसी तरह प्रचार करते हैं जिस तरह फिल्मों का किया जाता है। इन्टरनेट का इस्तेमाल भी चुनाव प्रचार के लिए किया जाता है। इसके अलावे राजनीतिक दल चुनावी सभा करते हैं। आजकल सभा में श्रोताओं को बुलाने के लिए लोकप्रिय फिल्मी सितारों को भी बुलाया जाता है। इससे फिल्मी सितारों की चल रही फिल्मों को भी लाभ मिलता है। चुनावी सभाओं की तरह फिल्म अभिनेताओं के फैन्सक्लब भी सभायें करते हैं। खासकर दक्षिण भारत में फैन्स क्लबों का संगठन ज्यादा व्यवस्थित तरीके से काम करता है। तमिलनाडु एवं आंध्रप्रदेश की राजनीति में फिल्मी सितारों की निर्णयकारी भूमिका रही है। इसका एक बड़ा कारण मद्रास प्रेसिडेंसी में द्रविड आंदोलन की बौध्दिक जड़ो में है। द्रविड विचारक अपने को ब्राहमणवादी हिन्दू धर्म एवं संस्कृति से अलग दिखलाने की कोशिश करते रहे हैं। जिसके फलस्वरूप द्रविड कार्यकर्त्ता हिन्दू मंदिरों में जाने में हिचक अनुभव करते थे। इस हिचक की   अभिव्यक्ति फिल्मी सितारों के दैवीकरण की प्रक्रिया के द्वारा होने लगा। फिल्मी सितारों को मात्र अभिनेता न मानकर दैवीय गुणों से संपन्न महामानव या देवी के रूप में होने लगा। अभिनेताओं के फैन्स क्लब बनने लगे और अभिनेत्रियों का तो बकायदा मंदिर तक बन गया। उसमें उनकी पूजा तक हुई। शिवाजी गणेशन, एम. जी. रामचन्द्रण, रजीनीकांत एवं जयललिता आदि का तमिलनाडु कल्ट विकसित हुआ। एन.टी. रामाराव एवं चिरंजीवी का आंध्रप्रदेश में कल्ट विकसित हुआ। राजकुमार का कर्नाटक में कल्ट विकसित हुआ। केरल में मोहनलाल एवं मम्मुटी के प्रशंसकों के बीच भी कल्ट जैसी ही स्थिति रही। इसके विपरीत उत्तार भारत में धर्म एवं मंदिर का महत्व काफी हद तक कायम रहा।

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