Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

छोटे बजट बनाम बड़े बजट की फिल्में: भविष्य एवं सामाजिक संदर्भ

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छोटे बजट बनाम बड़े बजट की फिल्में: भविष्य एवं सामाजिक संदर्भ

 

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 समाज में टैलेन्ट की कमी नहीं है लेकिन उनको खोजने का व्यवस्थित   साधन आज उपलब्ध नहीं है। कॉरपोरेट हाउसों के पास रचनात्मक मैनेजरों एवं पारखी सलाहकारों की भयानक कमी है। इसके लिए फिल्म निर्माताओं को प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। पटकथा लेखन सिखाने वाले स्तरीय संस्थान चाहिए। सिनेमा सोसाइटी आंदोलन को फिर से गतिशील करना चाहिए। इप्टा की तरह युगानुकुल कलाकारों का संगठन चाहिए। सिनेमा और समाज के जटिल रिश्ते पर शोध एवं डाक्युमेंटेशन को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। तभी भारत हॉलीवुड से प्रतियोगिता करने में सक्षम होगा।      

केवल गुणवत्ता ही वह कवच है जो मंदी के इस दौर में हिन्दी सिनेमा की रक्षा कर सकता है। मंदी का मौजूदा दौर हवा में उड़ने वालों को सबक सिखा रखा है और यथार्थ के कठोर धरातल पर ले आया है। ऐसा दौर अहंकार के मदमस्त हाथी को वश में करता है। जिन आम दर्शकों की सहायता से सिनेमा ने लगभग पौन सदी (1913 से 1993) तक का सफर तय किया उस वर्ग को मल्टीप्लैक्स ने हाशिये पर डाल दिया। ताली बजाने वाले इन दर्शकों के उन्माद के बिना सिनेमा का जादू अपना पूरा रहस्य उजागर नहीं करता। सिनेमा के जादू में यकीन करने वाले आम दर्शक ही इस खेल के असली सितारे हैं। यह दर्शक वर्ग साहसी है और अपने शौक की खातिर जोखिम उठा सकता है। मंदी के दौर में मल्टी प्लैक्सों के दाम घटाने पर पच्चीस शो को जुबली मानने वाले असली पच्चीस सप्ताह वाली जुबली देखेंगे और मंदी के दौर में कम फिल्मों के बनने के संकट का भी सार्थक मल्टीप्लैक्सों को खाली रहना पड़ेगा।                 

सिनेमा में बहुत लंबे समय तक ऐसी फिल्में बनती रहीं जिसमें आम आदमी विपरीत परिस्थिति में किसी प्रेरणा से इतना शक्तिशाली हो जाता है कि वह अपने सभी शत्रुओं को हराता है। अमेरिका के पास अपनी मायथोलॉजी नहीं है। सुपर नायक की किंवदंती सामाजिक संरचना में आवश्यक होती है। सुपर नायक के पास दैवीय शक्तियां होती हैं और इस मायने में वह हमारी अवतारवाद की धारणां के नजदीक आता है। हॉलीवुड के प्रभाव में सुपर नायक फिल्में प्रारंभ हुई।
सिनेमा माध्यम में दीए और तूफान की लड़ाई हमेशा लोकप्रिय रही है और सिनेमा आम आदमी को नायक की तरह प्रस्तुत करता रहा है। इसमें प्रेम और करूणा जैसी रसों की उत्पत्ति होती है। जबकि सुपर नायक वाली फिल्में आपको फंतासी की दुनिया में ले जाती हैं और आप उम्मीद करने लगते हैं कि ऐसा कोई नायक हमारी जिंदगी की जंग लड़ेगा।
कर्ज पर टिके उत्पादन, निर्माण, खरीद और भव्यता के साथ भोग की संस्कृति अस्वाभाविक है। यह लंबे समय तक स्थिर और संतुलित रह ही नहीं सकता। इस सभ्यता के दिन जल्दी बहुरने वाले नहीं हैं। जिस तरह 1947 से  यूरोप का लगातार पतन और अमेरिका का लगातार उत्थान होता रहा ठीक उसी तरह अब अमेरिकी सभ्यता का लगातार पतन और गैर यूरोपीय - गैर पश्चिमी सभ्यता का धीरे - धीरे ही सही लेकिन लगातार उत्थान संभावित है। इस उत्थान में भारतीय सिनेमा की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। एक स्तर पर सिनेमा जादू या सम्मोहन है। फिल्मकार अपनी प्रस्तुति से सम्मोहन का जाल या नदी के तेजधार जैसी प्रवाह पैदा करता है ताकि दर्शक ढ़ाई से तीन घंटे तक कथा की गहराई में डूब जाए। अगर दर्शक उब गया तो फिल्मकार डूब जाता है।
भारत में सिनेमा का प्रारंभ ही धार्मिक आख्यानों से हुआ है। पहले दर्शक की सारी फिल्में आख्यान और किंवदंतियों पर आधारित थीं। फिल्मकारों को माध्यम की सतही जानकारी थी। इसलिए उन्होंने ऐसी कहानियां चुनीं जिन्हें दर्शक पहले ही जानते थे ताकि प्रस्तुतिकरण में छूटे हुए रिक्त स्थान दर्शक अपनी जानकारी से भर दें।

महात्मा गांधी ने भी अपनी सभाओं का आरंभ भजन और कीर्तन से ही किया। भारत में भीड़ जुटाने के लिए यह आवश्यक रहा है। भारत की सबसे बड़ी शक्ति धर्म रहा है और सबसे बड़ी कमजोरी अंधविश्वास, कुरीतियां और पाखंड रहा है। अपनी अर्कमण्यता और आलस्य को धर्म का आवरण पहनाना पाखण्ड है।

 

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