Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

हिन्द स्वराज की प्रासंगिकता

 


महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

गुलाम भारत में संप्रभुता एवं स्वावलंबन के सूत्रो की खोज

खण्ड घ
सनातन सभ्यता का नया शास्त्रा 
   
निष्कर्ष

 

गांधीजी के तर्कों से प्रभावित होकर पाठक गांधीजी से पूछता है कि आपके विचारों से ऐसा लगता है कि आप एक तीसरा ही पक्ष कायम करना चाहते हैं। आप उग्र राष्ट्रवादी भी नहीं हैं और नरमपंथी सुधारवादी भी नहीं हैं। इस पर गांधीजी कहते हैं कि उनके मन में तीसरे पक्ष का कोई खयाल नहीं है। सबके विचार एक से नहीं रहते। वे नहीं मानते कि नरमपंथियों में भी सब के विचार एक जैसे हैं। जिसे लोगों की सेवा ही करनी है, उसके लिए पक्ष कैसा? वह तो नरमपंथियों (मॉडरेटों) की भी सेवा करेगा और गरमपंथियों (एक्स्ट्रीमिस्टों) की भी। जहां उनके विचार से उनकी राय अलग पड़ेगी वहाँ वे नम्रता से उन्हें बतलाया करेंगे और अपना काम करते चलेंगे। वे गरमपंथियों से कहते हैं कि आपका लक्ष्य हिन्दुस्तान के लिए स्वराज हासिल करने का है। स्वराज आपकी कोशिश से मिलनेवाला नहीं है। स्वराज तो सबको अपने लिये पाना चाहिये--और सबको उसे अपना बनाना चाहिये। दूसरे लोग जो स्वराज दिला दें वह स्वराज नहीं है बल्कि परराज्य है। इसलिए अगर आप ऐसा मानते हों कि सिर्फ अंग्रेजों को इस देश से निकाल कर आपने स्वराज पा लिया तो यह आपकी खुशफहमी है। सच्चा स्वराज आप गोला बारूद से अंग्रेजों को भगा कर नहीं पा सकते। गोला-बारूद हिन्दुस्तान को सधोगा नहीं। इसलिए सत्याग्रह पर ही भरोसा रखिये। मन में ऐसा शक भी पैदा न होने दीजिये कि स्वराज पाने के लिए हमें गोला-बारूद की जरूरत है। नरमपंथियों से वे कहते हैं कि हम खाली आवेदन करना चाहें तो यह हमारी हीनता होगी। उसमें हम अपना हलकापन कबूल करते हैं। 'अंग्रेजों से सम्बन्धा रखना हमारे लिए जरूरी है' ऐसा कहना या मानना हमारे लिए ईश्वर को चोर बनाने जैसा हो जाता है। हमें ईश्वर के सिवा और किसी की जरूरत है ऐसा कहना ठीक नहीं है। और यह कहना कि 'अंग्रेजों के बिना आज तो हमारा काम चलेगा नहीं' आत्महीनता के साथ-साथ अंग्रेजों को अभिमानी बनाने जैसा होगा। अंग्रेज अगर बोरिया-बिस्तर बांधाकर चले जायेंगे, तो हिन्दुस्तान अनाथ नहीं हो जायेगा। अगर वे गये तो संभव है कि जो लोग उनके दबाव से चुप रहे होंगे, वे लड़ेंगे। फोड़े को दबाकर रखने से कोई फायदा नहीं। उसे तो फूटना ही चाहिये। इसलिये अगर हमारे भाग्य में आपस में लड़ना ही लिखा होगा तो हम लड़ मरेंगे। उसमें कमजोर को बचाने के बहाने किसी दूसरे को बीच में पड़ने की जरूरत नहीं। इसी से तो अब तक हमारा सत्यानाश हुआ है। नरमपंथियों को भी इस बात पर अच्छी तरह विचार करना चाहिये इस तरह कमजोर को बचाना उसे और भी कमजोर बनाने जैसा है। ''स्वराज में अंधाधुंधी बरदाश्त की जा सकती है, लेकिन परराज्य की व्यवस्था हमारी कंगाली को बताती है।'' हम किसी का भी जुल्म या दबाव नहीं चाहते--चाहे वह गोरा हो या हिन्दुस्तानी हो। देश हित में नरमपंथी और गरमपंथी दोनों को मिलना चाहिये। दोनों का एक-दूसरे के प्रति डर रखने की या अविश्वास करने की जरूरत नहीं है।

इसी तरह गांधीजी अंग्रेजों से कहते हैं कि आप हमारे राजा जरूर हैं। आप हमारे देश में रहें इसका भी मुझे द्वेष नहीं है। लेकिन राजा होते हुए भी आपको हमारे सेवक की तरह रहना होगा। आपका कहा हमें नहीं, बल्कि हमारा कहा आपको करना होगा। आज तक आप इस देश का जो धान ले गये, वह आपने भले ही हजम कर लिया। लेकिन अब आगे आपका ऐसा करना हमें पसन्द नहीं होगा। आप हिन्दुस्तान में सिपाहीगिरी करना चाहें तो रह सकते हैं। हमारे साथ व्यापार करने का लालच आपको छोड़ना होगा। जिस सभ्यता की आप हिमायत करते हैं उसे हम नुकसानदेह मानते हैं। अपनी सभ्यता को हम आपकी सभ्यता से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ समझते हैं। आपको भी ऐसा लगे तो उसमें आपका लाभ ही है। लेकिन ऐसा न लगे तो भी आपको आपकी ही कहावत (रोम में रोमन बनकर रहो) के मुताबिक, हमारे देश में हिन्दुस्तानी होकर रहना होगा।

इसी क्रम में गांधीजी अंग्रेजों को कहते हैं कि आपको ऐसा कुछ नहीं करना चाहिये जिससे हमारे धर्म को बाधा पहुँचे। राजकर्ता होने के नाते आपका फर्ज है कि हिन्दुओं की भावना का आदर करने के लिये आप गाय का माँस खाना छोड़ दें और मुसलमानों के खातिर सूअर का माँस खाना छोड़ दें। हम गुलामी के कारण दब गये थे इसलिए आपके खिलाफ बोल नहीं सके, लेकिन आप ऐसा न समझें कि आपके इस बरताव से हमारी भावनाओं को चोट नहीं पहुँची है। हम स्वार्थ या दूसरे भय से आज तक कह नहीं सके, लेकिन अब यह कहना हमारा फर्ज हो गया है। हम मानते हैं कि आपकी कायम की हुई संस्थायें और अदालतें हमारे किसी काम की नहीं हैं। उनके बजाय हमारी पुरानी संस्थायें और अदालतें ही हमें चाहिये। हिन्दुस्तान की आम भाषा अंग्रेजी नहीं बल्कि हिन्दी है। वह आपको सीखनी होगी और हम तो आपके साथ अपनी भाषा में ही व्यवहार करेंगे। आप रेलवे और फौज के लिए बेशुमार रूपये खर्च करते हैं यह हमसे देखा नहीं जाता। हमें उसकी जरूरत नहीं मालूम होती। रूस का डर आपको होगा हमें नहीं है। रूसी आयेंेगे तब हम उनसे निबट लेेंगे; आप होंगे तो हम दोनों मिलकर उनसे निबट लेंगे। हमें विलायती या यूरोपीय कपड़ा नहीं चाहिये। इस देश में पैदा होनेवाली चीजों से ही हम अपना काम चला लेंगे। आपकी एक ऑंख मैनचेस्टर पर और दूसरी हम पर रहे, यह अब नहीं चल पायेगा। आपका और हमारा स्वार्थ एक ही है इस तरह यदि आप भी सोचेंगे तभी हमारा साथ बना रह सकता है।

गांधीजी  अपनी बात को जारी रखते हुए अंग्रेजों से आगे कहते हैं कि आपसे यह सब हम बेअदबी से नहीं कह रहे हैं। आपके पास हथियार-बल है, भारी जहाजी सेना है। उसके खिलाफ वैसी ही ताकत से हम नहीं लड़ सकते। लेकिन आपको अगर ऊपर कही गई बात मंजूर न हो तो आपसे हमारी नहीं बनेगी। आपकी मरजी में आये तो और मुमकिन हो तो आप हमें तलवार से काट सकते हैं। परंतु हमें जो पसंद नहीं है वह अगर आप करेंगे, तो हम आपकी मदद नहीं करेंगे; और बगैर हमारी मदद के आप इस देश में एक कदम भी नहीं चल सकेंगे। संभव है कि अपनी सत्ता के मद में हमारी इस बात को आप हँसी में उड़ा दें। लेकिन अगर हममें कुछ दम होगा, तो आप देखेंगे कि आपका मद बेकार है और आपका हँसना विनाश-काल की विपरीत बुध्दि की निशानी है। हम मानते हैं कि आप भी स्वभाव से धार्मिक राष्ट्र की प्रजा हैं। हम तो धर्मस्थान में ही बसे हुए हैं। आपका और हमारा कैसे साथ हुआ, उसमें उतरना फिजूल है। लेकिन अपने इस संबंधा का हम दोनों अच्छा उपयोग कर सकते हैं।

इसके आगे गांधीजी व्यंग्यात्मक रूप से कहते हैं कि हिन्दुस्तान में आनेवाले आप जैसे अंग्रेज अंग्रेजी-प्रजा के सच्चे नमूने नहीं हैं; और हम जो आधो अंग्रेज जैसे बन गये हैं वे भी सच्ची हिन्दुस्तानी-प्रजा के नमूने नहीं कहे जा सकते। अंग्रेजी-प्रजा को अगर आपकी करतूतों के बारे में सब कुछ मालूम हो जाये तो वह आपके कामों के खिलाफ हो जायेगी। हिन्द की प्रजा ने तो आपके साथ बहुत थोड़ा ही संबंधा रखा है। आप अपनी सभ्यता को (जो दरअसल विनाशकारी है) छोड़कर अपने धर्म की छानबीन करेंगे तो आपको लगेगा कि हमारी मांग ठीक है। आप हिन्दुस्तान में रह तभी सकते हैं अगर आप इस देश की संस्कृति को अपना लें। अगर हिन्दुस्तानी ढ़ंग से आप यहाँ रहना चाहेंगे तो आपसे हमें बहुत थोड़ा सीखना है जबकि हमसे आपको बहुत कुछ सीखना है। इस तरह हम (एक-दूसरे से) लाभ उठायेंगे और सारी दुनिया को लाभ पहुँचायेंगे। लेकिन यह तो तभी हो सकता है जब हमारे संबंधा की जड़ धर्मक्षेत्र में जमे।

इससे आगे के प्रकरण में पाठक गांधीजी से राष्ट्र के नाम उनके संदेश के बारे में पूछता है। इस पर गांधीजी कहते हैं कि वे इस राष्ट्र से कहेंगे कि जिस हिन्दुस्तानी प्रजा को स्वराज की सच्ची खुमारी या मस्ती चढ़ी होगी वही अंग्रेजों से ऊपर की बातें कह सकेगा और उनके रौब से नहीं दबेगा। परंतु सच्ची मस्ती तो उसी को चढ़ सकती है, जो ज्ञानपूर्वक-- समझबूझकर यह मानता हो कि हिन्द की सभ्यता सबसे अच्छी है और यूरोप की सभ्यता चार दिन की चाँदनी है। यूरोप जैसी सभ्यतायें तो आज तक कई हो गयीं और मिट्टी में मिल गयीं; आगे भी कई होंगी और मिट्टी में मिल जायेंगी। सच्ची खुमारी उसी को हो सकती है जो आत्मबल अनुभव करके शरीर-बल से नहीं दबेगा और निडर रहेगा तब सपने में भी तोप-बल का उपयोग करने की बात नहीं सोचेगा। सच्ची खुमारी उसी हिन्दुस्तानी को रहेगी, जो आज की लाचार हालत से उब गया होगा। अगर ऐसा हिन्दुस्तानी संख्या में एक भी होगा तो वह भी ऊपर की बातें स्वभाविक रूप से अंग्रेजों से कह सकेगा और अंग्रेजों को भी उसकी बात सुननी पड़ेगी। ऊपर की मांग केवल मांग नहीं है; बल्कि वह हिन्दुस्तानियों के मन की दशा की अभिव्यक्ति है। मांगने से कुछ नहीं मिलेगा। वह तो हमें खुद लेना होगा। उसे लेने की नैतिक ताकत हम में अवश्य होनी चाहिये। यह ताकत उसी में होगी:

(1)  जो अंग्रेजों की भाषा का उपयोग लाचारी से ही करेगा।

(2)  जो वकील होगा वह अपनी वकालत छोड़ देगा और खुद घर में चरखा चलाकर कपड़े बुन लेगा।

(3)  जो वकील होने के कारण अपने ज्ञान का उपयोग सिर्फ लोगों को समझाने और लोगों की ऑंखें खोलने में करेगा।

(4)  जो वकील होकर वादी-प्रतिवादी-- मुद्दई और मुद्दालेह के झगड़ों में नहीं पड़ेगा, अदालतों को छोड़ देगा और अपने अनुभव से दूसरों को अदालतें छोड़ने के लिए समझायेगा।

(5)  जो वकील होते हुए भी जैसे वकालत छोड़ेगा वैसे न्यायाधाीशपन भी छोड़ेगा।

(6)  जो डॉक्टर होते हुए भी अपना पेशा छोड़ेगा और केवल शरीर के तात्कालिक सुख को बढ़ाने के साथ-साथ मनुष्यों की भीतरी तन्दुरूस्ती बढ़ाने के लिए प्रकृति एवं आत्मा के रहस्यों की खोज करेगा।

(7)  जो डॉक्टर होने से समझेगा कि खुद चाहे जिस धर्म का हो, लेकिन अंग्रेजी वैद्यकशालाओं - फार्मेसियों - में जीवों पर जो निर्दयता की जाती है, वैसी निर्दयता से बनी हुई दवाओं से शरीर को चंगा करने के बजाय प्राकृतिक चिकित्सा को प्रोत्साहित करेगा।

(8)  जो डॉक्टर होने पर भी खुद चरखा चलायेगा और जो लोग बीमार होंगे उन्हें उनकी बीमारी का सही कारण बताकर उसे दूर करने के लिए कहेगा। निकम्मी दवाएं देकर उन्हें गलत आदत नहीं लगायेगा। यानी जो सेवा भाव से चिकित्सा करेगा और जीविका के लिए शारीरिक श्रम करेगा।

(9)  जो धानी होने पर भी धान की परवाह किये बिना अपने मन में जो होगा वही कहेगा और बड़े-से-बड़े सत्ताधीश की भी परवाह नहीं करेगा।

(10) जो धानी होने पर अपना रूपया चरखे चालू करने में खरचेगा और खुद सिर्फ स्वदेशी माल का इस्तेमाल करके दूसरों को भी ऐसा करने के लिए बढ़ावा देगा।

(11) दूसरे हर हिन्दुस्तानी की तरह जो समझेगा कि अंग्रेजी राज का यह समय पश्चात्तााप का, प्रायश्चित्ता का और शोक का है।

(12) जो दूसरे हर हिन्दुस्तानी की तरह यह समझेगा कि देश की गुलामी के लिए अंग्रेजों का कसूर निकालना बेकार है चूंकि वे हमारे कसूर की वजह से वे हिन्दुस्तान में आये, हमारे कसूर के कारण ही वे यहाँ शासन करते हैं और हमारा कसूर जब दूर होगा तब वे यहाँ से चले जायेंगे या गुणात्मक रूप से बदल जायेंगे।

(13) जो दूसरे हिन्दुस्तानियों की तरह यह समझेगा कि मातम के वक्त शौक-मौज नहीं हो सकते। जब तक हमें स्वराज नहीं मिलता है तब तक हमारा जेल में रहना या देशनिकाला भोगना ही ठीक है।
(14) जो दूसरे हिन्दुस्तानियों की तरह यह समझेगा कि लोगों को समझाने के बहाने जेल में न जाने की खबरदारी रखना निरा मोह है।

(15) जो दूसरे हिन्दुस्तानियों की तरह यह समझेगा कि कहने  से करने का असर अद्भुत होता है; हम निडर होकर जो मन में है वही कहेंगे और इस तरह कहने का जो नतीजा आये उसे सहेंगे, तभी हम अपने कहने का असर दूसरों पर डाल सकेंगे।

(16) जो दूसरे हिन्दुस्तानियों की तरह यह समझेगा कि हम दुख सहन करके ही बंधान यानी गुलामी से छूट सकेंगे।

(17) जो दूसरे हिन्दुस्तानियों की तरह यह समझेगा कि अंग्रेजों की सभ्यता को बढ़ावा देकर हमने जो पाप किया है, उसे धो डालने के लिए अगर हमें मरने तक भी अंडमान द्वीप में रहना पड़े तो वह कुछ ज्यादा कष्टकर नहीं होगा।

(18) जो दूसरे हिन्दुस्तानियों की तरह यह समझेगा कि कोई भी राष्ट्र बिना दुख सहन किये आज तक ऊपर नहीं चढ़ा है। लड़ाई के मैदान में भी दुख सहन ही वीरता की कसौटी होता है न कि दूसरों को मारना। सत्याग्रह के बारे में भी ऐसा ही है।

(19) जो दूसरे हिन्दुस्तानियों की तरह यह समझेगा कि यह कहना एक खोखला बहाना भर है कि 'जब सब लोग त्याग या बलिदान करेंगे तब हम भी करेंगे'। अगर मैं स्वादिष्ट भोजन देखता हूँ, तो उसे खाने के लिए दूसरे की राह नहीं देखता। ऊपर कहे मुताबिक प्रयत्न करना, दुख सहना, एक प्रकार का स्वादिष्ट भोजन है। उत्साह से ही इसका मजा लिया जा सकता है। यह सब करने के क्रम में न तो मुझे  सबकी परवाह है, न आपको होनी चाहिये। 'आप अपना देख लीजिये, मै अपना देख लूंगा'-- यह स्वार्थ-वचन माना जाता है, लेकिन यह परमार्थ वचन भी है। मैं पहले अपना भला करूंगा, तभी दूसरों का भला कर सकूंगा। मैं अपनार् कत्ताव्य कर लूं इसी में पुरूषार्थ की सारी सिध्दियाँ समायी हुई हैं।
निष्कर्ष के रूप में गांधीजी पाठकों को बतलाते हैं कि :-
(1) आपके मन का राज्य स्वराज है।
(2) आपकी कुंजी सत्याग्रह, आत्मबल या करूणा बल है।
(3) उस बल को आजमाने के लिए स्वदेशी को पूरी तरह अपनाने की जरूरत है।
(4) हम जो करना चाहते हैं वह अंग्रेजों को सजा देने के लिए नहीं करें, बल्कि इसलिए करें कि ऐसा करना हमारार् कत्ताव्य है। मतलब यह कि अगर अंग्रेज नमक-कर रद्द कर दें, लिया हुआ धान वापस कर दें, सब हिन्दुस्तानियों को बड़े-बड़े ओहदे दे दें और अंग्रेजी लश्कर हटा लें, तब भी हम उनकी मिलों का कपड़ा नहीं पहनेंगे, उनकी अंग्रेजी भाषा काम में नहीं लायेंगे और उनकी हुनर-कला का उपयोग नहीं करेंगे। हमें यह समझना चाहिए कि हम वह सब दरअसल इसलिए नहीं करेंगे क्योंकि वह सब नहीं करने योग्य है।

वास्तव में, हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने जो भी कहा है वह अंग्रेजो के प्रति द्वेष होने के कारण नहीं, बल्कि उनकी सभ्यता के प्रतिवाद में कहा है। गांधीजी का स्वराज दरअसल एक वैकल्पिक सभ्यता का शास्त्र या ब्लू प्रिंट है वह राज्य की सत्ता प्राप्त करने का कोई राजनैतिक एजेंडा या मेनिफेस्टो नहीं है।

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