Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

हिन्द स्वराज की प्रासंगिकता

 


महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

गुलाम भारत में संप्रभुता एवं स्वावलंबन के सूत्रो की खोज

खण्ड-ख
आधुनिक सभ्यता की मीमांसा    
सभ्यता का दर्शन

अपने तर्क को वे अगले अधयाय में बढ़ाते हैं। हिन्द स्वराज के छठे अधयाय का शीर्षक 'सभ्यता का दर्शन' है। इस अधयाय का सैध्दान्तिक आधार एक ओर सनातन भारतीय सभ्यता की उनकी अपनी समझ है जो मूलत: उनकी व्यक्तिगत अनुभूतियों पर आधारित है। परंतु दूसरी ओर यह प्लेटो, रस्किन, थोरो और टाल्सटाय जैसे पश्चिमी परंपरावादियों की रचनाओं से भी प्रभावित है।

एक अंग्रेज लेखक के अनुसार यह (आधुनिक) सभ्यता एक तरह का रोग है। इसी को आधार बना कर गांधीजी कहते हैं कि आधुनिक सभ्यता में लोग बाहरी दुनिया की खोजों में और शरीर के सुख में धान्यता यानी सार्थकता और पुरूषार्थ मानते हैं। इस सभ्यता के विचारकों की राय में यह सभ्यता जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी लोगों को हाथ-पैर हिलाने की जरूरत नहीं रहेगी। सारी सुख-सुविधायें एक बटन दबा कर मशीन एवं अत्याधुनिक तकनीक की मदद से प्राप्त की जा सकेगी। हर काम मशीन से किया जायेगा। अब पहले की तरह हाथ-पैर या शरीर के अन्य अंगों की आवश्यकता न के बराबर होगी।

पहले लोग खुली हवा में, अपने को जितना ठीक लगे, उतना काम स्वतंत्रता से करते थे। अब हजारों आदमी अपने गुजारे के लिए इकट्ठा होकर बड़े कारखानों में या खानों में काम करते हैं। पहले लोगों को मार-पीटकर गुलाम बनाया जाता था। आज लोगों को पैसे का और भोग का लालच देकर गुलाम बनाया जाता है।

इस सभ्यता में नीति और धर्म की बात ही नहीं है। इस सभ्यता के हिमायती साफ-साफ कहते हैं कि ''उनका काम केवल लोगों को धर्म सिखाने का नहीं है। धर्म तो ढोंग है। नीति के नाम पर अनीति सिखलाई जाती है।'' शरीर का सुख कैसे मिले, यही आज की सभ्यता ढ़ूंढ़ती है; और यही देने की वह कोशिश करती है। परंतु वह सुख भी नहीं मिल पाता। गांधीजी के शब्दों में यह सभ्यता तो अधर्म है और यह यूरोप में इतने हद तक फैल गयी है कि वहाँ के लोग आधो पागल जैसे दिखते हैं। वे एकांत में बैठ ही नहीं सकते। वे नशा करके अपनी ताकत कायम रखते हैं। जिन स्त्रियों को घर की रानियाँ होनी चाहिए, उन्हें गलियों में भटकना पड़ता है या कोई मजदूरी करनी पड़ती है। औरत हो या मर्द हर प्रकार के मजदूरों की हालत इस सभ्यता में जानवरों से भी बदतर हो गई है। इसका लाभ मात्र पैसे वाले लोगों को मिलता है।

गांधीजी कहते हैं कि ''इस सभ्यता की चपेट में आये हुए लोग खुद की जलायी हुई आग में जल मरेंगे। पैगम्बर मोहम्मद साहब की सीख के मुताबिक यह शैतानी सभ्यता है। हिन्दू धर्म इसे निरा कलियुग कहता है। यह सभ्यता दूसराें का नाश करने वाली और खुद नाशवान है। इससे दूर रहना चाहिए और इसीलिए ब्रिटिश और दूसरी संसदें बेकार हो गईं हैं। ब्रिटिश संसद अंग्रेज प्रजा की गुलामी की निशानी है। हमें अंग्रेज प्रजा पर दया आनी चाहिए। वे साहसी और मेहनती हैं। मूल में उनके विचार अनीति भरे नहीं हैं। यह सभ्यता उनके लिए कोई अमिट रोग नहीं है। लेकिन अभी वे इस रोग में फंसे हुए हैं।''

आधुनिक सभ्यता की इतनी कटु, इतनी सरल भाषा में और इतनी कलात्मक आलोचना देखने में नहीं आती। इसकी तुलना आनंद कुमारस्वामी के प्रसिध्द निबंधा ''सभ्यता क्या है?'' से करने पर इसका महत्तव ज्यादा समझ में आता है। कुमारस्वामी ने अपने विश्लेषण का आधार प्लेटो की अवधारणा एवं स्थापना को बनाया है जबकि महात्मा गांधी ने आधुनिक सभ्यता की अपनी आलोचना का मानदंड पैगंबर मुहम्मद की शिक्षाओं और हिन्दू धर्म में लोकप्रिय कलियुग की अवधारणा से लिया है। तीनों स्रोतों (प्लेटो के ग्रीक, मुहम्मद साहब के अरब एवं हिन्दुओं के भारतीय) से आधुनिक सभ्यता की करीब एक जैसी आलोचना प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है। प्रकारांतर से उपरोक्त तीनों परंपराओं की सभ्यता के बारे में सहधार्मिता साबित की गई है। तीनों परंपराओं में सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिध्दांत का महत्तव  समान है ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, परंतु समय की जैसी एक रेखीय, यांत्रिक और कृत्रिम अवधारणा आधुनिक सभ्यता में पायी जाती है वह उपरोक्त परंपराओं में नहीं पायी जाती। मूल्य-निरपेक्ष गति, लोभ, लालच, हर कीमत पर प्राप्त हो सकने वाले शारीरिक सुख की जैसी निर्लज वकालत आधुनिक सभ्यता में देखने को मिलती है वह भी उपरोक्त परंपराओं में नहीं मिलती। गांधीजी आधुनिक सभ्यता को एक प्रकार की अस्वाभाविक स्थिति, एक प्रकार का रोग, एक प्रकार की अधार्मिक अभिव्यक्ति मानते हैं। उनको लगता है कि यह हिन्दुओं के कलियुग और इस्लाम वालों के शैतानी सभ्यता की अवधारणा पर फिट बैठती है। फिर वे यह कहते हैं कि यह खुद नाशवान है और दूसरों का नाश करने वाली है। मुझे लगता है कि गांधीजी को अरबी इस्लाम में लोकप्रिय शैतानी साम्राज्य या शैतानी सभ्यता के बारे में बहुत गहरी जानकारी नहीं थी। शैतानी साम्राज्य या सभ्यता दूसरों का नाश करने वाली तो कही जा सकती है परंतु उसे खुद नाशवान नहीं कहा जा सकता। उसी तरह कलियुग को नाशवान एवं द्वापर, त्रेता या कृतयुग को अनाशवान नहीं कह सकते। चारों युग एक अर्थ में नाशवान और दूसरे अर्थ में सनातन है। उसी तरह कलियुग को दूसरों का नाश करने वाला भी नहीं कह सकते। कुछ लोगों ने कलियुग को तारणे वाला भी कहा है। सनातनी अर्थों में मात्र इतना अंतर है कि कृतयुग में धर्म चार पैरों पर खड़ा होता है, त्रेता में तीन पर, द्वापर में दो पैर पर, कलियुग में एक पैर पर। फलस्वरूप, कलियुग में व्यवस्था की दृष्टि से सबसे अधिाक असंतुलन होता है। स्वर्ण, लोभ, मोह, सत्ता आदि का कुछ अधिाक महत्तव होता है। अहंकार जल्दी बढ़ जाता है। कर्मफलों की प्राप्ति जल्दी होने लगती है। परंतु कलियुग के बाद कालचक्र घूम कर कृतयुग पर फिर पहुंचता है। इस तरह संसार का सनातन चक्र चलते रहता है। महात्मा गांधी का भाव तो सनातनी है लेकिन उनकी भाषा यहां विश्लेषण वाली कम और खण्डन वाली ज्यादा है। इस अधयाय में उन्होंने अंग्रेजी राज की साम्राज्यवादी मानसिकता पर गहरी चोट की है। उस समय अधिाकांश भारतीय विद्वान कहीं-न-कहीं आत्महीनता के भाव से ग्रस्त नजर आते थे। उनको अपनी संस्कृति और सभ्यता कमजोर और खोखली नजर आने लगी थी और आधुनिक यूरोप की सभ्यता अपराजेय, पवित्र और कल्याणप्रद नजर आने लगी थी। उस स्थिति में हिन्द स्वराज जैसी पुस्तक का आना जरूरी था। इसमें भारतीय दृष्टि से यूरोपीय सभ्यता की शुरूआती सैध्दान्तिक आलोचना है। 

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