Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

वर्तमान राजनीति की दिशा

वर्तमान राजनीति की दिशा

 

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 उसी तरह यूरोप के अधिकांश देशों ने अपने उपनिवेश बनाये थे। फलस्वरूप यूरोपीय देश भी रोल मॉडेल नहीं माने जाते हैं। अमेरिका कभी रोल मॉडेल हुआ करता था लेकिन पिछले 30 सालों में इसने अपनी सत्ता, पैसा और सैनिक ताकत के बल पर जो दादागिरी किया है उससे अधिकांश देश भीतर से अमेरिका के प्रति क्रोध एवं नफरत पाले हुए हैं। वे अमेरिका से आतंकित अवश्य रहते हैं लेकिन दिल से आदर नहीं करते।
दूसरी ओर गांधी की सत्य, अहिंसा एवं सर्वोदय की अवधारणा एवं सत्याग्रह की रणनीति के प्रति विश्वग्राम के अधिकांश देशों में आकर्षण है। नेहरू ने गुट - निरपेक्ष देशों का लंबे समय तक नेतृत्व किया था। मिस्र के नासिर एवं   युगोस्लाविया के टीटो तथा इंडोनेशिया के सुकर्णों नेहरू के प्रमुख सहयोगी थे। आज भारत, ब्राजील, साउथ अफ्रीका और जर्मनी की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। ये चारो देश संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद के नये स्थायी सदस्यों की दावेदारी कर रहे हैं। आज न कल इनकी दावेदारी वर्तमान स्थायी सदस्यों को माननी पड़ेगी। इनमें भारत को धीरे - धीरे अमेरिका के विकल्प के रूप में अधिकांश देशों का नैतिक समर्थन मिल सकता है। विश्व व्यवस्था में महाशक्ति के रूप में अपनी दावेदारी करने से पहले भारत को अपनी आंतरिक समस्याओं का समाधान करना पड़ेगा।
भारत की सबसे प्रमुख समस्या गरीबी मिटाने के लिए पिछड़े क्षेत्रों एवं वर्गों के सर्वांगीण एवं संतुलित विकास पर ध्यान देने की है। पिछड़े इलाकों में बुनियादी ढ़ांचा का विकास करना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। गांवों तथा कृषि के विकास को प्रमुखता मिलनी चाहिए। युवा वर्ग की प्रतिभा का भरपूर दोहन करने के लिए हर जिले में शिल्प, तकनीक एवं सैध्दांतिकी के प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए बिजली, शिक्षा, पेयजल, स्वास्थ्य सेवाएं जैसी बुनियादी सुविधायें ढ़ाई सौ जिलों में पहुंचाना आवश्यक है जहां माओवादी सक्रिय हैं।
माओ के सांस्कृतिक आंदोलन में ज्यादती की गई थी। लेकिन सांस्कृतिक आंदोलन का लक्ष्य गलत नहीं था। महात्मा गांधी की नीतियों के आधार पर भारत में सांस्कृतिक आंदोलन करने का समय आ गया है। इससे युवा पीढ़ी माओवाद, आतंकवाद एवं नशाखोरी की गिरफ्त से बचकर भारत के नव - निर्माण में अपनी रचनात्मक भूमिका निभा सकेगी। इससे युवा पीढ़ी को दिशा एवं दृष्टि दोनों मिलेगी। इससे भारत के विकास का असंतुलन दूर होगा। इससे समाज में शांति, भाईचारा एवं सद्भावना बढ़ेगी। इससे समाज में सृजन का माहौल बनेगा। इससे भारतीय समाज में अतिरिक्त रचनात्मक ऊर्जा पैदा होगी जिससे विश्व का  कल्याण होगा।

भारत के असंतुलित विकास और ग्रामीण कृषि केन्द्रित अर्थव्यवस्था की उपेक्षा के संरचनात्मक एवं वैचारिक कारण हैं। पूंजीवादी विचारधारा का वर्गीय हित ग्रामीण पुनिर्निर्माण एवं कृषि केन्द्रित विकास के मार्ग का संरचनात्मक अवरोध है। महात्मा गांधी के सर्वोदय की विचारधारा एवं ट्रष्टीशिप की अवधारणा में संतुलित एवं सर्वांगीण विकास की संभावना थी। परन्तु नेहरू के जमाने से ही कांग्रेस पार्टी की रूचि महात्मा गांधी की विचारधारा में समाप्त हो चुकी थी। 1984 के नवंबर से राजीव गांधी पूंजीवादी रास्ते पर धीरे - धीरे चलने लगे थे। 1991 से नरसिंह राव के उदारीकरण के पूंजीवादी रास्ते पर राजनीतिक दृढ़ता से 2004 तक भाजपा केन्द्रित एन. डी. ए. सरकार ने नरसिंह राव की नीति को पुख्ता किया। 2004 से मनमोहन सिंह की सरकार इस नीति को तार्किक परिणति दे रही है। यह सरकार खुले आम अमेरिका परस्त विदेश एवं आर्थिक नीति चला रही है। मई 2004 से जुलाई 2008 तक लेफ्ट फ्रंट के अंकुश के कारण सरकार कुछ सर्तक थी। फलस्वरूप अमेरिका केन्द्रित विश्वव्यापी मंदी की चपेट में आने से हम काफी हद तक बचे रहे। लेकिन जुलाई 2008 से लेफ्ट फ्रंट का अंकुश समाप्त हो गया। मई 2009 में लेफ्ट फ्रंट की राजनीतिक ताकत एक तिहाई रह गई। भाजपा की मध्यमवर्ग में राजनीतिक पैठ को कांग्रेस ने धीरे - धीरे 2004 से हथियाना शुरू कर दिया था। अब मुसलमान कांग्रेस के समर्थन में एक बार फिर संगठित हो चुके हैं। नेहरू और इंदिरा युग में कांग्रेस एक मध्यमार्गी पार्टी थी, अब कांग्रेस एक दक्षिण पंथी पार्टी की तरह शासन करने लगी है। इस क्रम में इसकी विचारधारा में अन्तर्विरोध आना शुरू हुआ है। नरेगा के बावजूद इसका वर्गीय हित नेहरू और इंदिरा युग की तुलना में गुणात्मक रूप से बदल चुका है। लेकिन कांग्रेसी विचारधारा, संगठन तथा सरकार के अन्तर्विरोध एवं वर्गीय चरित्र का कलई खोलने के लिए सक्षम विपक्षी पार्टी का अभाव है। ऐसे में गांधीवादी जन आंदोलन ही एकमात्र उपाय हो सकता है। इस जन आंदोलन के लिए देश में एक नई मध्यमार्गी पार्टी चाहिए जिसके पास पूरे देश के समन्वित विकास के लिए सुपरिभाषित एजेंडा हो और जनकल्याणकारी नीतियां हों। तभी आम जनता ऐसी पार्टी से अपनापन महसूस करेगी और इसके आह्वान पर आंदोलित होगी। इसके अभाव में यू. पी. ए. की सरकार मध्यमार्गी पार्टी होने का दावा करते हुए दक्षिणपंथी नीतियां जारी रखेगी और आम जनता की बदहाली बढ़ती रहेगी। अभी गठबंधन की राजनीति चलने वाली है। भ्रष्टाचार चुनावी मुद्दा भले न बने लेकिन यू. पी. ए. की सरकार में भ्रष्टाचार बढ़ते जा रहा है। दक्षिण भारत में भ्रष्टाचार की हदे उत्तर भारत से ज्यादा है। उत्तर भारत में अशिक्षा एवं गरीबी ज्यादा है। बिहार के सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री कांग्रेस के जगन्नाथ मिश्र थे। उनकी तुलना में लालू एक अनाड़ी भ्रष्ट साबित हुए। लालू की हार का असली कारण राष्ट्रीय जनता दल की गुंडागर्दी और कानून - व्यवस्था की बदतर स्थिति थी। भ्रष्टाचार तो हर सरकार करती है। पूंजीवादी प्रजातंत्र में भ्रष्टाचार स्वाभाविक माना जाता है। इसीलिए महात्मा गांधी ने संसदीय प्रजातंत्र के पश्चिमी मॉडेल की इतनी कठोर आलोचना की थी। सवाल सीमा एवं संतुलन की है। मीडिया एवं न्यायपालिका के साथ सक्षम विपक्षी पार्टी की सजगता से सरकार सीमा एवं संतुलन में भ्रष्ट्राचार करती है। पार्टी चलाने के लिए एक सीमा तक भ्रष्ट्राचार प्रजातंत्र में स्वाभाविक माना जाता है। लेकिन पूंजीवादी प्रजातंत्र का व्यावहारिक विकल्प फिलहाल संभव नहीं है। इसीलिए मांटेस्क्यू ने कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं संसदीय प्रणाली के बीच सत्ता का विभाजन एवं परस्पर अंकुश को प्रजातांत्रिक व्यवस्था के लिए जरूरी माना था। बाद में मीडिया की भूमिका भी प्रमुख हो गयी। जैसे जैसे प्रजातांत्रिक मूल्यों का फैलाव होते जायेगा भारत में भी भ्रष्ट्राचार की हदें सीमित होती जायेंगी। मतदाता की सक्रियता बढ़ेगी तो दलों पर अंकुश बढ़ेगा। बहुदलीय व्यवस्था एवं गठबंधन की राजनीति भारतीय समाज के लिए कुल मिलाकर कल्याण्कारी स्थिति है। एकदलीय शासन में तानाशाही की प्रवृत्ति और भ्रष्ट्राचार दोनों बढ़ता है। एक स्तर पर भाजपा का पतन और कांग्रेस का पुनरोदय हुआ है लेकिन राज ठाकरे के मनसे का भी उदय हुआ है। ममता बनर्जी के तृणमूल की भी ताकत बढ़ी है। चौटाला की पार्टी और लालू - रामविलास पासवान के गठबंधन में भी नई जान आयी है। यह ठीक है कि 2014 तक बाल ठाकरे, प्रकाश सिंह बादल, करूणानिधि जैसे क्षत्रप शारारिक रूप से काफी अशक्त हो जायेंगे लेकिन इनका वोट बैंक कांग्रेस की ओर नहीं खिंसकने वाला है। चौटाला, मुलायम, लालू का वोट बैंक भी कांग्रेस की ओर नहीं खिंसकने वाला है। राहुल गांधी का प्रभाव महानगरों में ज्यादा है। ग्रामीण और कस्बाई मतदाता पर आज भी जाति और क्षेत्रीय अस्मिता वाले सरोकार ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। दिल्ली में तीन बार चुनाव जीतना आसान है, उत्तर प्रदेश और बिहार में तीन बार चुनाव जीतना मुश्किल है। कांग्रेस भाजपा की कीमत पर जीत रही है क्षेत्रीय दलों की कीमत पर नहीं जीत रही है। कांग्रेस के पुनरोदय की वास्तविक रफ्तार काफी धीमी और क्षेत्रीय है लेकिन मीडिया मैनेजमेंट राष्ट्रीय है। कांग्रेस का पुनरोदय मीडिया में जितना तेजी से हो रहा है उतना जमीनी धरातल पर नहीं हो रहा है। कभी एन. डी. ए. ने भी इसी तरह मीडिया मैनेजमेंट किया था। आज जिस तरह राहुल गांधी के गीत गाये जा रहे हैं ठीक उसी तरह 2004 के चुनाव परिणाम से पहले इंडिया शाइनिंग और भाजपा के गीत गाये जा रहे थे। मीडिया के इसी चका चौंध में लोकसभा का चुनाव प्रमोद महाजन ने समय से पहले करवाने की चाल चली थी जो उलटा पड़ा था। कांग्रेस को भाजपा के हस्र से सीख लेनी चाहिए। कांग्रेस को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि देश के 240 से अधिक जिलों में माओवादियों का राजनीतिक वर्चस्व है। आज न कल नेपाल की तरह माओवादी भी संसदीय प्रणाली में भागीदारी कर सकते हैं और माकपा तथा भाकपा से ज्यादा ताकतवर राष्ट्रीय दल के रूप में उभर सकते हैं। नक्सलवाद का सैनिक समाधान नहीं हो सकता। इसका राजनैतिक और आर्थिक समाधान ही हो सकता है। जमीनी धरातल पर राहुल ब्रिगेड़ की तुलना में माओवादी ब्रिगेड़ का प्रभाव ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है। फिर मुस्लिम बहुल इलाके में जेहादी इस्लाम का प्रभाव भी तेजी से बढ़ रहा है। कांग्रेस की ओर आया मुस्लिम वोट बैंक स्थायी नहीं रहने वाला है। यह रणनीतिक शिफ्ट है, जिसका उद्देश्य भाजपा को हराना था। बिना महंगाई और बेरोजगारी से लड़े कांग्रेस केवल राहुल की सांकेतिक राजनीति से युवाओं को अपनी ओर जोड़े नही रख सकती। वास्तव में भारत की वर्तमान राजनीति की दिशा बहुमुखी है। भारतीय समाज एक गंभीर संक्रमण काल से गुजर रहा है। यह कांग्रेस का सौभाग्य है कि इस समय उस के हाथ में देश की बागडोर है। अगर कांग्रेस अभी से चेत जाए और आम जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करते हुए ग्रमीण पुनर्निर्माण को अपनी राजनीतिक प्राथमिकता में शामिल करके भारत के सर्वांगीण विकास करने वाली नीतियों को अपनाये तो उसे लंबे समय तक शासन करने का मौका मिल सकता है वर्ना वह भी भाजपा की तरह पतन की राह चलते हुए इतिहास के कूडेदान में जगह पायेगी।

        

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