Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

हिन्द स्वराज की प्रासंगिकता

 


महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

गुलाम भारत में संप्रभुता एवं स्वावलंबन के सूत्रो की खोज

खण्ड-ग
भारतीय सभ्यता के सूत्र 
अंश आ
अंग्रेजी राज में हिन्दुस्तान की दशा   
अंग्रेजी राज और ऐलोपैथिक डॉक्टर

 

हिन्द स्वराज के बारहवें अधयाय में वे हिन्दुस्तान की तत्कालीन दशा से संबंधिात अपना पाचवाँ लेख 'डॉक्टर' शीर्षक से पूरा करते हैं। इस दृष्टि से पाँच लेखों के अंतर्गत गांधीजी की आठवीं चिंता वकीलों, डॉक्टरों जैसे नये पेशों के प्रचार-प्रसार के बहाने अनीति और अधर्म के नये-नये क्षेत्रों में प्रचार-प्रसार को लेकर है। गांधीजी कहते हैं कि हमारे समाज में वैद्य का धंधा कभी अच्छा माना ही नहीं गया। अंग्रेजों ने डॉक्टरी विद्या से भी हम पर काबू जमाया है। डॉक्टरों ने हमें जड़ से हिला दिया है। डॉक्टरों का काम शरीर में जो रोग पैदा होते हैं उन्हें दूर करने का है। रोग क्यों होते हैं? हमारी ही गफलत से। उदाहरण के लिए बहुत खाने से बदहजमी हो जाती है। अगर कोई डॉक्टरों की दवा न ले और  बदहजमी की सजा भुगते तो वह फिर से बहुत नहीं खायेगा। डॉक्टर बीच में आया और उसने हद से ज्यादा खाने में मेरी मदद की। उससे मेरे शरीर को तो तात्कालिक आराम हुआ, लेकिन मेरा मन कमजोर बना। अगर डॉक्टर बीच में नहीं आता तो कुदरत अपना काम करती, मेरा मन मजबूत बनता और अंत में निर्विषयी होकर मैं सुखी होता। अस्पतालें पाप की जड़ हैं। उनकी बदौलत लोग शरीर का जतन कम करते हैं और अनीति को बढ़ाते हैं। यूरोप के डॉक्टर तो हद करते हैं। वे सिर्फ शरीर के गलत जतन के लिए लाखों जीवों को हर साल मारते हैं, जिंदा जीवों पर प्रयोग करते हैं। ऐसा करना किसी भी धर्म को मंजूर नहीं। उनकी बहुत सी दवाओं में चरबी या दारू होती है। वे हमें धर्म भ्रष्ट करते हैं। हम नि:सत्व और नामर्द बनते हैं। हम लोकसेवा करने लायक नहीं रहते और शरीर से क्षीण तथा बुध्दिहीन होते जा रहे हैं। डॉक्टर सिर्फ आडम्बर दिखाकर ही लोगों से बड़ी फीस वसूला करते हैं और अपनी एक पैसे की दवा के कई रूपये ठग लेते हैं। ''भलाई का दिखावा करने वाले डॉक्टरों की तुलना में गांधीजी व्यंग्यात्मक रूप से नीम-हकीम जैसे ठग-वैद्यों को ज्यादा अच्छा मानते हैं।

इस अधयाय को बहुत धयान से पढ़ने की आवश्यकता है वर्ना बहुत से लोग खासकर नयी पीढ़ी इस अधयाय के रणनीतिक निहितार्थ को समझ नहीं पायेगी और गांधीजी के तर्क उन्हें बहुत हल्के, यहाँ तक कि बेतुके नजर आयेंगे।

इस अधयाय के संदर्भ पर धयान देना जरूरी है। अंग्रेजी राज में हिन्दुस्तान की दशा नामक पाँच अधयायों की श्रृंखला के अंतगर्त यह पाँचवाँ लेख है। इसमें अंग्रेजी राज के विरूध्द और हिन्दुस्तानी सभ्यता में स्वराज की प्राप्ति की दृष्टि से गांधीजी अपना आठवाँ तर्क और अन्तिम चिन्ता प्रस्तुत करते हैं। युध्द में जिस तरह तरकश का अन्तिम तीर सबसे विषैला और सबसे विनाशकारी माना जाता है उसी तरह अंग्रेजी राज और आधुनिक सभ्यता के खिलाफ यह अधयाय गांधीजी के तरकश का अन्तिम तीर है। गांधीजी को मालूम है कि अब तक के सारे तर्कों के बावजूद भारत में अंग्रेजी राज के समर्थक, हिन्दुस्तान का पश्चिम परस्त तबका, अंग्रेजी राज की बरकतों के गीत गाना नहीं छोडेंग़े। अब भी यह तबका कहेगा कि चलो मान लिया ब्रिटिश संसद के मॉडल पर बना भारतीय संसद और विधान सभाएं अकल्याणकारी हैं। वह यह भी मान लेगा कि रेलगाड़ी से जितना फायदा है उससे ज्यादा नहीं तो कम-से-कम उतना ही दूसरे प्रकार का नुकसान है। वह यह भी मान लेगा कि अंग्रेजी राज में हिन्दू-मुस्लिम झगड़े बढ़े। वह यह भी मान लेगा कि अंग्रेजी राज ने इस देश को जो शान्ति और व्यवस्था देने का दावा प्रस्तुत किया है उसमें तथ्यात्मक खोट है। वह यह भी मान लेगा कि अंग्रेजों के आने से बहुत पहले से हम एक समृध्द, सुसंस्कृत और कल्याणकारी राष्ट्र रहे हैं। वह यह भी मान लेगा कि अंग्रेजी ढंग के न्यायालयों की तुलना में हमारी अपनी न्याय व्यवस्था और पंचायतें ज्यादा कल्याणकारी थी एवं भारतीय वकीलों ने अंग्रेजी राज को सुदृढ़ करने और हिन्दुस्तान की गुलामी को पुख्ता करने में बहुत महत्तवपूर्ण भूमिका निभायी है। परंतु अंग्रेजों के समर्थन में वह तब भी कहेगा कि अंग्रेजी राज की एक बरकत, अंग्रेजों की एक देन तो निर्दोष  रह हीं जाता है। उनकी जादुई दवा (वंडर ड्रग) जैसे कुनैन, उनकी एलोपैथिक चिकित्सा पध्दति, उनकी चिकित्सा पध्दति का जादुई सर्जरी और सूट-बूट, टाई पहने एवं गले में आला लगाये और आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित अंग्रेज डाक्टर। ये लोग तो शोषण नहीं करते। इनसे तो कोई नुकसान नहीं। ये तो केवल सेवा करते हैं। कम से कम उनके डाक्टरों और उनकी चिकित्सा पध्दति को तो हिन्दुस्तान के लिए वरदान मानना ही पड़ेगा। अंग्रेजों का इस देश में कम से कम यह तो योगदान है ही। कम से कम इस आधार पर तो अंग्रेजी राज का समर्थन करना ही पड़ेगा। कम से कम यह तो शैतानी सभ्यता के अनुरूप नहीं है। कम से कम यह तो देवदूत जैसा कार्य है। देवदूत जैसा पेशा है।

गांधीजी को मालूम है कि जिस तरह रावण का सिर काटने से रावण नहीं मरता, चूँकि रावण की नाभि में अमृत का घट है। ठीक उसी प्रकार, अंग्रेजी राज को भी इस देश में सबसे ज्यादा नैतिक समर्थन, सबसे ज्यादा वैधाता उनके डाक्टरों, अस्पतालों और उनकी चिकित्सा पध्दति से मिलती है। परंतु यूरोप और साउथ अफी्रका के अनुभवों, संपर्कों, संवादों एवं अधययनों के आधार पर गांधीजी को मालूम है कि ऐलोपैथिक चिकित्सा के तात्कालिक फायदे तो दिखते हैं परंतु इसके दूरगामी साइड इफेक्टस (अदृश्य प्रभाव) नहीं दिखते। उनको यह भी मालूम है कि यूरोप में 18वीं शताब्दी से ही ऐलोपैथिक चिकित्सा की अपूर्णता, क्रूरता एवं विनाशकारी प्रभाव पहचाना जाने लगा है और इसके बेहतर विकल्प के रूप में प्राकृतिक चिकित्सा, होमियोपैथी, सूर्यकिरण चिकित्सा, संगीत चिकित्सा, आहार चिकित्सा और एशिया महादेश में लोकप्रिय पारंपरिक चिकित्सा पध्दतियों- आयुर्वेद, यूनानी एवं चीनी चिकित्सा पध्दतियों का महत्तव स्वीकारा जा रहा है। गांधीजी ने प्राकृतिक चिकित्सा एवं स्वस्थ जीवन के लिए मार्गदर्शिका, स्वस्थ जीवन की कुँजी जैसी पुस्तिकाओं की रचना इसी दृष्टि से की थी। इसी संदर्भ में हिन्द स्वराज के बारहवें अधयाय में अंग्रेजी राज में डाक्टरों की भूमिका का वे सरल भाषा में समालोचना प्रस्तुत करते हैं। यह अधयाय अपने समय से काफी पहले उत्तार-आधुनिक तर्कों के आधार पर हर व्यक्ति को अपना डाक्टर खुद बनने, अपने शरीर के स्वभाव और जरूरतों को समझकर अपने रोगों का खुद इलाज करने और अपने सर्वंगीण स्वास्थ का खुद ख्याल रखने का अपील करती है और प्रकारांतर से अंग्रेजी राज के भारत में बने रहने का अंतिम और सबसे मजबूत नैतिक स्तंभ ढ़ाहने की कोशिश करती है।

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