Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

हिन्द स्वराज की प्रासंगिकता

 

हिन्द स्वराज की प्रासंगिकता

हिन्द स्वराज आज की नई पीढ़ी के बच्चों, युवकों, युवतियों एवं छात्र-छात्राओं के लिए बहुत प्रासंगिक पुस्तिका है। भारत की पुरानी पीढ़ी - खास कर पढ़े-लिखे लोगों की पुरानी पीढ़ी - ने हिन्द स्वराज के प्रति कुल मिलाकर उपेक्षा भाव ही दिखलाया। हालांकि पुरानी पीढ़ी के लोगों ने खुद गांधीजी को एवं उनके सामाजिक एवं राजनैतिक कार्यों को न सिर्फ याद रखा बल्कि उस पर पीढ़ी दर पीढ़ी हल्के एवं गंभीर दोनों अर्थों में विचार भी किया। परंतु गांधीजी ने जो लिखा, खासकर उनकी महत्तवपूर्ण पुस्तिका 'हिन्द स्वराज' को, व्यवस्थित तरीके से पढ़ने एवं गांधीजी ने हिन्दुस्तान के महत्तवपूर्ण चिंतक के रूप में जो बोला उसके गंभीर निहितार्थों को समझने की कोशिश इन लोगों ने नहीं की। और जिन लोगों ने 'हिन्द स्वराज' को पढ़ा उनमें से अधिाकांश लोगों ने गांधीजी को गंभीर चिन्तक या व्यावहारिक द्रष्टा नहीं माना। उनके जीवन-काल में ही उनके प्रमुख अनुयायियों एवं आत्मीय मित्रों ने 'हिन्द स्वराज' को अव्यावहारिक एवं कमजोर कृति कहा तो उनके विरोधिायों ने उन्हें एक खतरनाक एवं आत्ममुग्धा बहुरूपिया तक कहा। किसी ने कहा कि वे अंग्रेजी राज के एजेंट थे । किसी ने कहा कि वे तो हिन्दू हैं ही नहीं, वे तो छद्म ईसाई हैं और भारत में गैर-आधुनिक ईसाइयों का धर्मयुध्द, शैतानी आधुनिकता के प्रतीक अंग्रेजी साम्राज्य से, वे भारत में लड़ रहे थे। किसी ने उन्हें भारत के बंटवारे के लिए उत्तारदायी ठहरा दिया तो किसी ने साफ-साफ कह दिया कि खिलाफत आंदोलन को समर्थन देकर उन्होंने भारतीय मुसलमानों के सुधारवादी आंदोलन को धाक्का पहुंचाया एवं कट्टरवादी धार्मांधाता के विषाणु को वैधाता एवं सुरक्षा प्रदान की। किसी ने इसलिए उनसे द्वेष पाला कि उन्होंने भगतसिंह को फांसी से बचाने के लिए अंग्रेजों पर दबाव नहीं बनाया तो किसी को ये लगा कि पट्टाभिसीतारमैया के प्रति अतिशय प्रेम के कारण उन्होंने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के साथ अन्याय किया। समर्थकों एवं विरोधिायों दोनों को ही शुरू से आज तक यह समझ में नहीं आया कि जब कांग्रेस पार्टी का प्रचण्ड बहुमत सरदार पटेल को स्वतन्त्र भारत का प्रधानमंत्री बनाना चाहता था तो उन्होंने अपने वीटो के इस्तेमाल द्वारा जवाहरलाल नेहरू को  प्रधानमंत्री क्यों बनाया? अब जबकि गांधीजी एवं नेहरूजी के पत्राचार आसानी से उपलब्धा हैं, उपरोक्त निर्णय और भी रहस्यपूर्ण लगता है। चूंकि 1947 से काफी पहले 1930 के दशक से ही नेहरूजी एवं गांधीजी के विचारों में गुणात्मक अन्तर उनके समकालीनों में चर्चा के विषय बनने लगे थे और पत्र-दर-पत्र यह दूरी बढ़ती गई। अब जबकि कांग्रेस पार्टी के लिए भी नेहरूवाद का आर्कषण नहीं रहा और गांधीजी के समकालीन विरोधिायों के वैचारिक वंशजों में गांधी का आकर्षण बढ़ रहा है, महात्मा गांधी की विरासत को लेकर नई रस्सा-कस्सी शुरू हो गई है। गांधीजी के जीवन में ही यूरोप के चिन्तकाें का एक वर्ग ईसाई अर्थों में उन्हें ईश्वर का आदमी और महात्मा मानने लगा था और जैसे-जैसे पर्यावरण असंतुलन एवं हिंसा से मुक्ति के लिए पश्चिम के सवेंदनशील स्त्री-पुरुष अगंड़ाई ले रहे हैं वैसे-वैसे महात्मा गांधी के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है। परंतु महात्मा गांधी और 'हिन्द स्वराज' के बारे में लागों की समझ बढ़ रही है ऐसा दावा नही किया जा सकता।

हमारा मानना है कि अगर उनके जीवन काल में भी हिन्द स्वराज को ठीक से समझने की कोशिश की जाती, उसके पूर्वग्रह रहित पठन पाठन की संस्कृति विकसित होती तो गांधीजी की व्यावहारिकता, भारतीयता, सनातनी हिन्दू पारंपरिकता एवं दूरदृष्टि के बारे में संशय की स्थिति नही रहती। भारत की नई पीढ़ी अगर बिना किसी पूर्वानुमान, संशय एवं उपेक्षा के 'हिन्द स्वराज' का जिज्ञासु भाव से अधययन करेगी तो हमारा पूरा विश्वास है कि उसे गांधीजी बहुत सरल, व्यावहारिक, युक्तिपूर्ण, प्रासंगिक एवं विश्वसनीय नजर आयेंगे। संभवत: 'हिन्द स्वराज' 21वीं सदी के लिए ही लिखी गई थी । आधुनिकता के सभ्यतामूलक रोग का जन्म भले ही इंग्लैंड के ग्लोरियस रिवोल्युसन (1688) से माना जाता है और लॉक की पुस्तक 'ऐसे कनसर्निंग ह्युमन अंडरस्टैंडिंग' (1690) को भले ही आधुनिकता का पहला व्याकरण माना जाता हो परंतु अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम (1776) एवं फ्रांसीसी क्रांति (1789) से पहले पश्चिम की सभ्यता को आधुनिक नहीं कहा जाता। 1688 से 1789 तक का काल संक्रमण का काल ही माना जाता है। ठीक उसी तरह 1968 से आधुनिकता के अंत और उत्तर-आधुनिक युग के जन्म की बात भले कही जाती है परंतु बर्लिन की दीवार के ढहने (1989) और सोवियत संघ के बिखरने के साथ शीत युध्द की समाप्ति (1991) से पहले उत्तर आधुनिक सभ्यता की बात नहीं कही जाती। ईराक पर अमेरिका के आक्रमण के मुद्दे पर जिस तरह शेष विश्व ने अमेरिका और जार्ज बुश (जुनियर) के साथ असहयोग किया ऐसा विश्वव्यापी असहयोग आधुनिक सभ्यता में न कभी हुआ, न हो सकता था। इस बदले हुए संदर्भ में यह भी हुआ है कि अब भारत के अंतर्गत मैकॉले की शिक्षा से प्रभावित मधयवर्ग संख्या, आकार एवं प्रभाव की दृष्टि से न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में इतना फल-फूल चुका है कि 17 जनवरी 2005 को दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित एक आकलन के अनुसार आज दुनिया का हर चौथा इंजीनियर भारतीय है और 104 करोड़ की भारतीय जनसंख्या में विकसित दुनिया द्वारा स्थापित मानदंडों के अनुसार करीब 30 करोड़ लोग अपनी समृध्दि और ऐश्वर्य से चमक रहे हैं। सकल राष्ट्रीय उत्पाद एवं व्यापार सूचकांक के आधार पर भारत का स्थान इस वर्ष अमेरिका, चीन और जापान के बाद चौथा है। स्टीफेन कोहेन और थॉमस एल. मेगनंटी से लेकर सी. आई. ए. के रणनीतिकारों द्वारा बौध्दिक जगत् में भारत को एक उभरती हुई विश्व शक्ति के रूप में देखा, समझा और सराहा जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, सौन्दर्य प्रतियोगिता कराने वालों, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश से लेकर भारतीय राजनीति के दोनों महत्तवपूर्ण गठबंधान - यू. पी. ए. एवं एन. डी. ए. के आर्थिक नीति निर्माताओं तक की नजर इसी 30 करोड़ चमकते भारतीयों, जिन्हें इंडियन कहा जाता है, पर है। परंतु बाकी के 74 करोड़ भारतीयों के बारे में लोग हिकारत की दृष्टि से देखते हैं और कई बार तो उपेक्षा भाव से देखना भी नहीं चाहते। उन्हें लगता है कि यदि प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से चौथे नम्बर के समृध्द देश इंडिया का स्थान 100वां है तो इसकी जिम्मेदारी इन्हीं 74 करोड़ भारतीयों की है न कि 30 करोड़ समृध्द एवं आधुनिक शिक्षा प्राप्त सभ्य 'इंडियन्स' की।

21वीं सदी के पाँचवें वर्ष में 'इंडिया' की ताकत, समृध्दि और कौशल तो सबको दिख रहा है, और खुलेआम स्वीकारा भी जा रहा है, लेकिन 'भारत' और इसके लोक में रसे-बसे भारतीयों की शक्ति और कुशलता न तो आसानी से दिखती है, न स्वीकारी जाती है। हद तो यह है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 58 वर्ष बाद भी अधिाकांश पढ़े लिखे भारतीयों को अपनी शक्ति 'शक्ति' नहीं कमजोरी दिखती है। अब वह अपने संस्कार और संस्कृति को अपनी शक्ति का स्रोत नहीं मानता, मात्र अपनी पहचान का लक्षण मानने लगा है। दूसरी ओर 30 करोड़ चमकते इंडिया वालों के एक वर्ग को लगने लगा है कि ये 74 करोड़ ''गंवार, काहिल, असभ्य'' भारतीय लोग उनके ऊपर, उनके इंडिया के ऊपर बोझ हैं अत: अजीब-अजीब सुझाव आने लगा है। कोई कहता है कि दक्षिण एवं पश्चिम भारत को तथाकथित 'गाय क्षेत्र' (उत्तार एवं पूर्वी भारत) से अलग हो जाना चाहिए। तो कुछ दूसरे कहते हैं कि चीन में जिस तरह हांगकांग का स्वायत्ता क्षेत्र है उसी तरह के 20-30  स्वायत्ता क्षेत्र भारत में भी विकसित करना चाहिए। कोई कहता है कि काश्मीर को जम्मू एवं लद्दाख से अलग करके स्वतंत्र कर दो चूंकि आर्थिक दृष्टि से 1947 से काश्मीर हमारे लिए बोझ ही तो है ! तो कुछ लोग उत्तार-पूर्वी भारत के संवेदनशील आन्दोलनकारियों से आजिज आ कर आर्थिक नुकसान देखते हुए उन्हें स्वतंत्र करने की बात करने लगे हैं।

ऐसी परिस्थिति में महात्मा गांधी के हिन्द स्वराज का पुनर्पाठ बहुत प्रासंगिक हो जाता है। करीब 100 वर्ष पहले सामान्य अंग्रेज और अन्य यूरोपीय लोग भी भारत को इसी तरह हिकारत से देखते थे। अब कुछ भारतीय लोगों ने भी इसी उपनिवेशवादी दृष्टि से देखना शुरू कर दिया है। परंतु उभरती हुई विश्वव्यवस्था में आज इंग्लैंड की स्थिति क्या है? जिन अंग्रेजों के राज में कहते हैं सूरज नहीं डूबता था वह खुद क्यों  डूबा? कभी अमेरिका और भारत दोनों अंग्रेजी राज के उपनिवेश थे, आज उपनिवेश केन्द्र में हैं और आधुनिक युग के राजा लोग (स्पेन, पुर्तगाल, हॉलैंड, इंग्लैंड और फ्रांस) विश्व व्यवस्था के केन्द्र से बहुत दूर परिधिा की तरफ पहुंचकर अपने स्वर्णिम अतीत को सहला रहे हैं।

उसी तरह, आज के भारत में भी एक अजीब बंटवारा उभर रहा है जिसमें करीब 74 करोड़ भारतीयों के पास प्रजातांत्रिक अधिाकार एवं संवैधानिक मत के आधार पर केन्द्रीय एवं प्रांतीय सरकारों में शासन का वीटो है, तो 30 करोड़ इंडियन्स के पास धान, तकनीक एवं प्रशिक्षित पेशों का व्यावसायिक हुनर है। आज जरूरत इस बात की है कि भारत और इंडिया की खाई को पाटने के लिए एक नई दृष्टि तथा नई संस्थाएँ विकसित की जा सकें। दोनों एक-दूसरे की शक्ति को समझें एवं स्वीकारें। आज भारत के पश्चिम परस्त तबके यानी इंडिया वालों को हिन्द स्वराज अवश्य पढ़ना चाहिए चूंकि हमारी जानकारी में आम भारतीय एवं उनकी सभ्यतामूलक दृष्टि की जैसी सरल एवं सुबोधा अभिव्यक्ति इस पुस्तिका में हुई है वैसी अन्यत्र नहीं हुई है। साथ ही, आम भारतीयों को भी आज इस पुस्तक को पढ़ने से बहुत लाभ होगा चूंकि इसमें उनकी सांस्कृतिक दृष्टि से आधुनिक सभ्यता के मूल्यांकन का जो सूत्र है वह उन्हें एक ओर 30 करोड़ इंडियन्स को समझने में मदद करेगा तो दूसरी ओर, इंग्लैंड के उत्थान एवं पतन को भी समझने की दृष्टि देगा। हमारे 'इंडियन्स' चाह कर भी हमसे अलग नहीं हो पायेंगे चूंकि अब भी समृध्द भारतीय लोग उस तरह के आधुनिक समूह नहीं बन पाये है जिस तरह के आधुनिक 1909 के आसपास अंग्रेज लोग थे। भारत एक सभ्यता है। इसके आम (74 करोड़) एवं खास (30 करोड़) समूहों में अब भी बहुत कुछ साझा है। उदाहरण के लिए, आकांक्षा के स्तर पर दोनों समूह के भारतीय लोग अब भी अपने को ब्रह्मांड का केन्द्र नहीं समझते। जबकि यूरोपीय आधुनिकतावाद के दौर में आम एवं खास, अंग्रेज तथा अन्य यूरोपीय देशों के लोग मनुष्य को ब्रह्मांड का केन्द्र एवं हर तरह के मूल्यांकन की कसौटी या मानदंड मानने लगे थे। इसी तरह भारतीय अब भी मनुष्य को 'मशीन' नहीं मानते। भारतीय लोग अपने को पशु, मशीन और देवता से अलग अवश्य मानते हैं। यह भाव भी रहा है कि 84 लाख योनियों में मनुष्य तन बहुत भाग्य से मिलता है। इसके बावजूद भारत में मनुष्य को यूरोपीय मानववादियों की तरह सृष्टि का केन्द्र और भोक्ता नहीं माना जाता।
भारतीयों में आज भ्रम, विचलन एवं आत्मविश्वास की कमी भी अवश्य दिखती है। उनकी मूढ़ता, जिद और समस्याएं भी कम नहीं हैं, इसके बावजूद सनातनी अर्थों में उनको अपने मनुष्य होने का अहसास और मनुष्य बने रहने की महत्ताा मालूम है। मनुष्य तन बहुत भाग्य से मिलता है इसका अहसास तो है परंतु मनुष्य होने का अहंकार अब भी नहीं है। आज भी उनके लिए मनुष्यता की चिन्ता केवल रोटी, कपड़ा, मकान एवं यूरोपीय अर्थों में पहचान एवं अधिाकार भर सीमित नहीं है। मुक्ति, सृष्टि, सृजन, संरक्षण, समन्वय और समायोजन उनके व्यक्तिगत पुरूषार्थ की उत्प्रेरणा के आज भी स्रोत हैं - आम लोगों के बीच सजग रूप में, खास लोगों के बीच अर्धा-सजग रूप में।

फलस्वरूप, हर भारतीय और भारतीय मूल का व्यक्ति अपनी आमदनी और सामर्थ्य का, दूसरे समाजों एवं संस्कृतियों के व्यक्तियों की तुलना में, काफी बड़ा भाग अपने ऊपर खर्च करने के बदले या तो दूसरों के ऊपर खर्च करता है या भविष्य एवं बाद की पीढ़ी के लिए बचाकर रखता है। अपना सब कुछ अपने लिए है और अपने ऊपर खर्च करने के लिए है, ऐसा एक सामान्य भारतीय या भारतीय मूल का व्यक्ति आज भी नहीं सोचता चाहे वह वैष्णव हो या शैव, शाक्त हो या प्रकृति पूजक, जैन हो या मुसलमान, बौध्द हो या सिख या फिर भारतीय मूल का ईसाई ही हो। आज जिसे साउथ एशिया कहा जाता है, उसे पारंपरिक लोग अखण्ड भारत या सनातनी भारत कहते हैं, इसकी उपभोग की एक विशिष्ट संस्कृति रही है। इसमें खुद कमाना, दूसरों को खिलाना और जो बचे वह खाना संस्कृति कहलाती है। खुद कमाना और खाना प्रकृति कहलाती है। दूसरों के श्रम की कमाई खाना विकृति मानी जाती है। यह पढ़े-लिखे वर्गों में कुछ कमजोर अवश्य हुई है परंतु, दूसरी सभ्यताओं की उपभोक्तावादी संस्कृति से तुलना करने पर, आज भी कायम दिखती है। भारतीय सभ्यता का आम वाहक तो खैर इस पर किसी न किसी तरह से अब भी कायम है ही। भारत में आज भी गुप्तदान एवं नि:स्वार्थ सेवा की परंपरा कमोबेश कायम है। आज भी समाज की इकाई व्यक्ति नहीं परिवार ही है।र् कत्ताव्य का महत्तव आज भी अधिाकार से ज्यादा माना जाता है।
अपने संकट एवं कंगाली के बावजूद एक भारतीय जीवन को बोझ नहीं मानकर उत्सव मानता है। जन्म, विवाह, मृत्यु, खुशी और गम पर उत्सव, विलास और सामूहिकता का संगम आज भी पुनर्नवता एवं सनातनता का अहसास कराने से नहीं चूकता। यहाँ आज भी विविधाता की न सिर्फ रक्षा की जाती है बल्कि आदर किया जाता है। आज भी निरंतरता के दायरे में ही परिवर्तन होता है।

भारतीय समाज में विचारधारा अथवा किताब एवं तार्किक संगति की तुलना में आत्मान्वेषण, अपरोक्ष अनुभूति, कथनी एवं करनी में एक्य तथा व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में संगति को ज्यादा महत्तव दिया जाता है। हमारे यहाँ सृजन की पात्रता हासिल करने के लिए मुक्ति की अपरोक्ष अनुभूति आवश्यक मानी जाती है; और इस प्रकार की मुक्ति के लिए विविधा मार्ग, पंथ, दर्शन प्रणाली एवं कलाओं को साधाना आवश्यक माना गया है। हमारे यहाँ विकास, उत्सव, समृध्दि, भोग एवं साधाना के लिए किसी एक मत या संप्रदाय के आग्रह को कभी नहीं स्वीकारा गया। अत: प्राचीन काल से शास्त्र और लोक दोनों स्तरों पर विविधाता को पारंपरिक प्रोत्साहन मिलता रहा है और युगानुकूल समन्वय भी होता रहा है। समन्वय का कोई अखिल भारतीय एकरूप मॉडेल न कभी रहा है, न ही आवश्यक माना गया है; चूंकि, जैसा आनंद कुमारस्वामी एवं जे. पी. एस.  उबेराय आदि ने कहा है, भारतीय परंपरा में अनेक संरचनाओं के पीछे दृष्टिकोण, तत्वज्ञान एवं उद्देश्य करीब-करीब समानाधार्मी ('होमोलोगस') रहा है। महात्मा गांधी ने भारत या हिन्द के इस स्वरूप को ठीक से पहचाना और हिन्द स्वराज में इसको अभिव्यक्त किया।

महात्मा गांधी का प्रशिक्षण उनके घर काम करने वाली दाई और उनके पड़ोसी, दुकानदार परिवार के सॉदय, रायचंद भाई के सानिधय में शुरू और इंग्लैंड में पूरा हुआ। उन्होंने अंग्रेजों की सभ्यता को न सिर्फ पुस्तकों की मदद से जाना बल्कि अपरोक्ष अनुभूति से भी जाना-महसूसा। बाद में साउथ अफ्रीका में भी महात्मा गांधी ने पश्चिमी सभ्यता के सबल-दुर्बल पक्षों से सत्याग्रह के क्रम में प्रयोगात्मक संवाद बनाया। वे पश्चिम की आधुनिकता के समर्थन एवं विरोधा करने वाले विमर्शों के भी संपर्क में आये और एक सनातनी हिन्दू के रूप में उन्होंने सब कुछ जाँचा परखा।  कई बार उनके मित्रों द्वारा उन्हें खुद को परिभाषित करने के लिए कहा गया। हर बार उन्होंने यही कहा कि वे सबसे पहले सनातनी हिन्दू हैं। उसके बाद एक भारतीय। और अंत में एक मनुष्य। जवाहर लाल नेहरू और सी. एफ. ऐन्ड्रूज जैसों को यह सदैव अटपटा लगा कि गांधीजी सबसे पहले मनुष्य, उसके बाद भारतीय और सबसे अंत में सनातनी हिन्दू क्यों नहीं हैं? 1915 में भारत आने के बाद भी उनका ज्यादा समय आम आदमी के सम्पर्क में एवं भारत दर्शन में ही बीता। उन्हें न तो ठीक से संस्कृत का ज्ञान था और न कभी अनुवादों के सहारे ही उन्होंने सनातनी शास्त्रों का व्यवस्थित अधययन किया। परंतु वे लोक में मौखिक रूप से कही जाने वाली वाचिक परंपरा से अवश्य भली भांति परिचित थे। गांधीजी सनातन धर्म की संस्कृत आधारित शास्त्रीय परंपरा के न तो प्रवक्ता थे, न विरोधी। वे तो लोक भाषाओं, लोक संस्कृतियों के आम स्त्री-पुरूषों, कृषकों-कारीगरों में लोकप्रिय सनातन धर्म, सनातन संस्कृति, शास्त्र, तकनीक, हुनर, कला एवं पध्दति के प्रवक्ता थे और आज भी उनसे ज्यादा समर्थ प्रवक्ता हमारे बीच नहीं हैं।

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