Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय परंपरा के समकालीन प्रवक्ता

भारतीय परंपरा के समकालीन प्रवक्ता

भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 भाग 5 भाग 6

भाग 5

ऐतिहासिक रूप से राममोहन राय पहले भारतीय माने जाते हैं जो भारत पर समृध्द पश्चिमी प्रभाव के प्रतीक बने। राममोहन राय हमेशा दिखावटी धर्म और संस्कृति की सीमाओं को तोड़ने की कोशिश करते रहे। यहाँ तक कि इस बात पर भी संदेह किया जा सकता है कि यूरोपीय अर्थों में धार्मिक न होकर एग्नॉस्टिक थे और विश्व धर्म की उनकी योजना अकबर के 'दीन-ए-इलाही' की तरह का एक रणनीतिक प्रोजेक्ट था न कि आस्थावान अभियान। यदि वह किसी धर्म में विश्वास करते भी थे तो उनके विश्वास के धर्म का अर्थ उस अर्थ से पूर्णतया भिन्न था जो हम सामान्यता धर्म से लेते हैं। हालांकि राममोहन राय के एकेश्वरवादियों से धानिष्ठ संबंधा थे लेकिन उनके विचारों में उनकी पूर्ण आस्था नहीं थी। उनके ''यथार्थवाद'' ने उन्हें बताया कि भारतीय समाज बीमार है। राममोहन ने अपने देशवासियों की बीमारी का निदान विश्व संस्कृति के व्यापक संदर्भ में खोजा। उनके कार्य को ब्रह्म समाज के बाहर डिरोजियो के अनुयाइयों और ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने आगे बढ़ाया। राममोहन की परंपरा में अंतिम महान व्यक्ति रवींद्रनाथ टैगोर थे। 1920 - 21 के राष्ट्रवादी जोश में जब भारत आंदोलित था तो महात्मा गांधी ने राममोहन राय को ''उपनिषदों के अनजान लेखकों की तुलना में बौना'' कहा था। इरफान हबीब, तपन रायचौधारी एवं धर्मपाल जैसे इतिहासकारों ने अंग्रेजी राज से पहले के भारतीय समाज, अर्थव्यवस्था, विज्ञान एवं तकनीक तथा शिक्षा के बारे में प्रामाणिक दस्तावेज एवं सूचनाएं प्रकाशित की हैं जिसके आधार पर भारतीय समाज बीमार नहीं बल्कि काफी समृध्द एवं खुशहाल नजर आता है। दादा भाई नौरोजी एवं रमेश चंद्र दत्ता जैसे विद्वानों ने अपने लेखन से यह साबित कर दिया था कि भारत में गरीबी, भुखमरी एवं शोषण का जैसा अत्याचार अंग्रेजी राज में अंग्रेजों की गलत नीतियों के कारण हुआ वह पहले के भारतीय इतिहास में नहीं पाया गया। समकालीन इतिहासकार भी यही मानते हैं कि राममोहन राय की विचारधारा भारतीय इतिहास के यथार्थ से प्रभावित नहीं होकर अंग्रेजी राज की विचारधारा और कुप्रचार से प्रभावित थी।

(2) दूसरे वर्ग के नायक स्वामी दयानंद सरस्वती माने जाते हैं। स्वामी दयानंद ने कहा कि हमें पश्चिम से विज्ञान-तकनीक सीखने की आवश्यकता नहीं है। उनके अनुसार हमारी वैदिक परंपरा में - वेदों में - विज्ञान एवं तकनीक भरा पड़ा है। फलस्वरूप वे और उनके अनुयायी वैदिक साहित्य में आधुनिक किस्म के विज्ञान एवं तकनीक खोजने लगे। आगे चलकर दयानंदजी के अनुयायी दो समूहों में, दो रास्तों पर चलने लगे (क) गुरूकुल कांगड़ी से जुड़े अनुयायी (पंडित गुरूदत्ता, लाला मुंशीराम, पंडित लेखराम आदि) पारंपरिक विज्ञान एवं तकनीक के अधययन, अधयापन एवं प्रयोग में लग गये (ख) दयानंद ऐंग्लो वैदिक विद्यालय एवं महाविद्यालय चलाने के लिए कटिबध्द लोग (लाला हंसराज, राय मथुरादास, लाला लाजपत राय आदि) वैदिक परंपरा एवं अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के बीच, कुछ स्वप्रेरणा से तो कुछ थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रभाव में, समन्वय की कोशिश करने लगे। परंतु दोनों समूहों के आर्य-समाजी दो अन्य बातों पर सहमत थे कि (क) हिन्दू समाज इसलिए गुलामी में जीने को अभिषप्त है चूंकि यह सामाजिक कुरीतियों एवं अंधाविश्वास के कारण भीतर से कमजोर और दिशाहीन हो गया है; (ख) इससे निजात पाने का एकमात्र उपाय यूरोपीय ढंग़ के सुधार (धर्म एवं समाज सुधार) आंदोलन से निकलेगा। स्वामी दयानंद सरस्वती की पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश एवं ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका का आर्यसमाजियों के लिए वही महत्त्च हो गया जो बंगाल के सुधारवादियों के लिए गीता एंव उपनिषदों के शंकर भाष्य का था।

स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 1824 में एवं मृत्यु 30 अक्टुबर 1883 में हुई। 1857 की क्रांति के दौरान ये मेरठ के आसपास सक्रिय थे। मंगल पांडे पर इनका प्रभाव माना जाता है। स्वामी दयानंद 1860 से 1863 तक स्वामी बिरजानंद के सानिधय में रहे और यहीं से इनकी जीवन धारा बदल गई। अब इनके जीवन का लक्ष्य हिन्दू धर्म की असंगतियों को दूर करना तथा वैदिक धर्म को पुन: स्थापित करना हो गया। 1872 ई. में दयानंदजी कलकत्ताा गये जहाँ इनकी मुलाकात देवेन्द्रनाथ टैगोर आदि से हुई। 1875 ई. में आर्य समाज, बंबई की स्थापना हुई तथा ''सत्यार्थ प्रकाश'' का प्रकाशन हुआ। 27 फरवरी 1886 को डी. ए. वी. ट्रस्ट एवं सोसाइटी की पहली बैठक शुरू हुई एवं 1 जून 1886 को लाहौर में डी. ए. वी. स्कूल शुरू हो गया। 1886 के बाद आर्य समाज दो भागों में विभाजित होकर काम करने लगा।

सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी दयानंद ने हिन्दू धर्म और समाज के पुनर्गठन के लिए वैदिक धर्म को आधार बनाया है। इस पुस्तक में उन्होंने अपने समय में फैली धार्मिक कुरीतियों, जड़ता, पाखंड और भ्रष्टाचार की कड़ी आलोचना की है। भारत के नवजागरण में दयानंद की खास पहचान सत्यार्थ प्रकाश के प्रकाशन के बाद बनी। उन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए आवाज उठायी, किन्तु राष्ट्रीय एकता की उनकी अवधारणा सभी भारतवासियों द्वारा वेदों की सत्ता और हिन्दू धर्म को स्वीकार करने पर आधारित थी। उन्होंने प्रार्थना समाज और ब्रह्म समाज के सामाजिक सुधारकों की निंदा की, क्योंकि ''इन समाजों के लोगों में देशभक्ति का अत्यधिाक अभाव है और अनेक बातों में उन्होंने ईसाइयों का अनुकरण किया है।'' ब्रह्म समाज का विरोधा करने का एक कारण यह था कि ''ब्रह्म समाज की पवित्र पुस्तक में संतों की सूची में ईसा, मोसेज, मोहम्मद, नानक और चैतन्य तक के नाम दिये गये हैं, किन्तु अतीत के ऋषियों में से एक का नाम भी नहीं है। इससे कोई भी सहज ही समझ सकता है कि इन लोगों की मान्यताएं वे ही हैं, जो इनकी पवित्र पुस्तक में गिनायी विभूतियों की शिक्षाओं से उद्भूत हैं।''

आर्य समाज ने जनता में देशभक्ति की भावनाएं इस पुनरूत्थानवादी नारे के आधार पर जगाने की कोशिश की : ''वेदों की ओर लौटो!'' वह वेदों को ईश्वर का वाक्य मानते थे, अत: उनमें किसी प्रकार की त्रुटि की सम्भावना नहीं थी। दयानंद के अनुसार वेद न केवल अतीत के संबंधा में, वरन भविष्य के बारे में भी, ज्ञान के मूर्त रूप थे। ''वेदों को स्वीकार करने से सम्पूर्ण सत्य स्वीकार कर लिया जाता है।'' राजा राममोहन राय एवं राणाडे वैदिक अवधारणाओं और तर्क में टकराव होने पर जहाँ तर्क का पक्ष लेना श्रेयष्कर समझते थे, वहाँ दयानंद का यह दृढ़ मत था कि वेद ही किसी समस्या का अंतिम समाधान प्रस्तुत कर सकते हैं। उन्होंने अपनी विचारधारा को निम्न रूप में अभिव्यक्त किया है : '' मैं मानता हूँ कि चारों वेद - जो ज्ञान और धर्म संबंधी सत्यों के निधान हैं - स्वंय ईश्वर के वचन हैं। उनमें केवल संहिता मंत्रों का संकलन है। वे त्रुटियों से पूर्णत: मुक्त हैं और स्वयमेव सबसे बड़ी सत्ता है। दूसरे शब्दों में, उनकी सत्ता की प्रामाणिकता के लिए किसी अन्य ग्रंथ की आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार सूर्य अथवा दीपक अपने प्रकाश से स्वयं अपने स्वरूप तथा ब्रह्माण्ड की अन्य वस्तुओं, जैसे पृथ्वी आदि, को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार वेद प्रकाशित है।''

सत्यार्थ प्रकाश 19वीं सदी में हिन्दू नवजागरण का महत्तवपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। सत्यार्थ प्रकाश की रचना 1874 में की गई थी और पहली बार यह 1875 में स्टार प्रेस, बनारस से छपा। आर्य समाजी इसे आधार ग्रंथ के रूप में लेते हैं। सत्यार्थ प्रकाश से समाज का जो हिस्सा प्रभावित हुआ उसमें खासकर पश्चिमी उत्तार प्रदेश और पंजाब के खत्री, अरोड़े, बनिए, कायस्थ और जाट जैसी मंझोली और ऊँची जातियों का अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त वर्ग था जिसने ऊँची सरकारी नौकरियों और व्यापार से अपनी आर्थिक हालत अच्छी बना ली थी और पौराणिक धर्म की अतार्किक खर्चीली प्रथाओं से मुक्त होकर अपनी शिक्षा के अनुरूप एक नई प्रभावशाली धामिर्क-सांस्कृतिक पहचान बनाना चाहता था। यही वर्ग आर्यसमाज आंदोलन का सामाजिक आधार बना। लेकिन खुद दयानंद अंग्रेजी शिक्षा और यूरोपीय आधुनिकता के सम्पर्क में कभी नहीं आए। रामकृष्ण परमहंस और दयानंद, दोनों को अंग्रेजी शिक्षा नहीं मिली थी, फिर भी इन दोनों सन्यासियों ने अपने समय के अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त युवकों को सबसे ज्यादा आकर्षित किया।

दयानंद का नवजागरण अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी मूल्यों से प्रेरित न होकर हिन्दू धर्म के पतन के खिलाफ एक प्रतिक्रिया के रूप में उभरा था। हिन्दू धर्म और समाज की बुराइयों के खिलाफ उन्होंने विद्रोह किया। इस विद्रोह की जड़े लोकतंत्र और बुध्दि-विवेकशीलता की आधुनिक यूरोपीय धारणाओं में न होकर भारत की शास्त्रीय परंपरा में थी। परंतु उस वक्त तक इस देश में अंग्रेजी राज और पश्चिमी प्रभाव इतना हावी हो चुका था कि स्वामी दयानंद को अपने देश की संस्कृति और शास्त्रों की सनातनता खतरे में लगने लगी। उनकी प्रतिक्रिया में शत्रु की सबलता और अपनी संस्कृति की निर्बलता का काफी गहरा अहसास देखा जा सकता है। शत्रु से लड़ने के लिए उन्होंने शत्रुओं के शास्त्रीय मानदंड एवं तर्क प्रणाली का हथियार के रूप में इस्तेमाल शुरू किया। फलस्वरूप उनके तर्क इस्लाम, ईसाईयत और ब्रह्म समाजियों के साथ-साथ सनातनी संप्रदायों के खिलाफ इस्तेमाल होते रहे। कुल मिलाकर आर्य समाज भारत के हिन्दुओं का एक गैर सनातनी संप्रदाय बन कर उभरा जो यूरोपीय मानदंडों पर धर्म एवं समाज के सुधार के लिए प्रतिबध्द था।

दयानंद जिस धार्मिकता को कायम करना चाहते थे उसकी बुनियाद में दो सबसे खास बातें थीं - तर्क और नैतिकता। उन्होंने बहुदेववाद को अस्वीकार किया, निराकार ईश्वर की आराधाना का समर्थन किया, परंपरागत ब्रह्मण पुरोहितों की अंधा कट्टरता की आलोचना की, मूर्ति पूजा और बाल विवाह का विरोधा किया तथा शिक्षा के प्रसार द्वारा नीची जाति के हिन्दुओं और स्त्रियों के स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयत्न किया। इन सभी कार्रवाईयों के पीछे उनका उद्देश्य ''हिन्दू धर्म'' को सुदृढ़ बनाना था।

जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था मानने का विरोधा करते हुए दयानंद ने तर्क दिया कि ''जो कोई वर्णाश्रम व्यवस्था माने और गुण कर्मो के योग से न माने तो उससे पूछना चाहिए कि जो कोई वर्ण अपने को छोड़ नीच, अन्त्यज अथवा क्रिश्चीयन, मुसलमान हो गया हो तो उसको भी बा्रह्मण क्यों नहीं मानते? यहाँ यही कहोगे कि उसने ब्राह्मण के कर्म छोड़ दिए इसलिए वह ब्राह्मण नहीं है।'' दयानंद कहते हैं कि वैदिक साहित्य (वेदों और मनुस्मृति) में वर्ण जन्म पर आधारित न होकर गुण-कर्म पर आधारित है : ''जिस-जिस पुरूष में जिस-जिस वर्ण के गुण-कर्म हो, उस-उस वर्ण का अधिाकार देना।'' स्वामी दयानंद के अनुसार ऐसी हीं वर्ण व्यवस्था से समाज की तरक्की होगी। इससे ऊपरवाले वर्णों को डर रहेगा कि अगर हमारे गुण-कर्म ठीक नहीं रहे तो हमें निचला वर्ण में जाना पड़ेगा। साथ हीं नीचे के वर्ण वालों को हौसला मिलेगा कि अच्छे गुण-कर्म करके ऊपर के वर्ण में पहुँचा जा सकता है। दयानंद के तर्कशील विचारधारा के असर से 19वीं सदी के कारोबारी लोगों और शिक्षित शहरी मधयवर्ग ने धर्म और समाज के प्रति एक विवेकशील रवैया अपनाया था। तर्क और नैतिकता पर धार्मिकता को खड़ा करने के लिए ही ज्ञान पर जोर दिया। इसने शिक्षित मधयवर्ग के अंदर स्वदेशीपन और आत्मगौरव का भाव जगाया। धर्म को सामाजिक दृष्टि से उपयोगी और मनुष्य के लिए प्रेरणादायक बनाने वाले दयानंद ने विदेशी विज्ञान और तकनीक को भी मान्यता दी। लेकिन विदेशी संस्कृति और धर्म का विरोधा किया।

(3) तीसरे वर्ग के नायक स्वामी रामकृष्ण के शिष्य स्वामी विवकोनंद माने जाते हैं। स्वामी विवेकानंद ने यह स्वीकार लिया कि भारत का भविष्य भारतीय वेदान्त (उपनिषद् एवं गीता के शंकर भाष्य पर आधारित अद्वैत वेदांत) एवं पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान, दर्शन एवं नैतिकता के समन्वय पर ही निर्भर करता है। वेदान्त के तत्व ज्ञान से आत्मा को खुराक मिलेगी परंतु शरीर एवं मस्तिष्क के पालन पोषण के लिए पश्चिम की मदद, पश्चिम की प्रेरणा आवश्यक है। आधुनिक पश्चिम की सभ्यता को स्वामी विवेकानंद मधयकालीन यूरोप की ईसाई परंपरा की तुलना में सनातन हिन्दू परंपरा के ज्यादा अनुकूल, एक तरह से पूरक तत्व मानते थे। फलस्वरूप भारतीय समाज की आंतरिक कमजोरी तथा सामूहिकता की भावना की कमी को उन्होंने हमारी करीब 1000 वर्षों की गुलामी एवं सांस्कृतिक पतन का परिणाम माना एवं इसको दूर करने के लिए आधुनिक यूरोपीय धर्म एवं समाज सुधार के तर्ज पर सुधार आंदोलन की वकालत किया। आधुनिक भारत में सुधार आंदोलन चलाने के लिए स्वामी विवेकानंद ने किसी सैध्दांतिक विचारधारा के सुसंबध्द आग्रह के स्थान पर हिन्दू चिंतकों में लोकप्रिय प्रैगमैटिज्म या रणनीतिक व्यावहारिकता एवं सांसारिक युक्ति को ज्यादा महत्तव दिया।

पिछला पेज डा० अमित कुमार शर्मा के अन्य लेख अगला पेज

 

 

top