Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

छायावाद का वास्तविक स्वरूप

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छायावाद का वास्तविक स्वरूप

 

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अनूठी लय, चुभते तुकान्त, पंक्तियों के अंत में 'र' ध्वनि का बाहुल्य पत्थर पर पड़ती हुई हथौड़े की नपी - तुली और  एक ही ढंग की नीरस चोटों का प्रभाव उत्पन्न करते है। हर दिन के थका देनेवाले और विवशतापूर्ण श्रम ने मानव की आत्मा को मानों कुंठित कर दिया है। उनकी प्रसिध्द रचना कुकुरमुत्ता का दूसरा भाग पहले का पूरक है और उसका विस्तार करता है। इस पूरे रूपक का मुख्य भाव है मेहनतकशों की स्तुति। कुकुरमुत्ता कविता के द्वारा निराला ने हिन्दी में एक नई विधा को जन्म दिया है। यह पंचतंत्र की नीतिकथा के समान कविता में एक दृष्टान्त कथा या आख्यायिका है। निराला के कलात्मक गद्य में प्रेमचंद की परम्परा का विकास हुआ है - इसमें रचनाकार के जीवन और समाज के जीवन में गहरी एकात्मता है इस अद्वैत को एकात्म मानववादी यथार्थ कहना उचित होगा। वेदांत को सृजनात्मक बनाने वाले निराला के यथार्थ बोध को एकात्म मानववादी यथार्थ इसलिए भी कहा जा सकता है कि ये दर्शन और सृजन के दोनों स्तरों पर एकात्म और मानवीय दृष्टि से सम्पन्न है। उनके उपन्यास 'बिल्लेसुर बकरिहा' में सर्वश्रेष्ठ गद्य रचना के सभी गुण हैं। किसानों में 'कुलक' मनोवृत्ति कैसे बनती है - इसका सजीव चित्रण 'बिल्लेसुर बकरिहा' में हुआ है। निराला किसानों में होने वाली सामाजिक चेतना के विकास का कलात्मक चित्रण विश्वसनीयता से करते हैं।

1926 - 28 के दौरान निराला का स्वास्थ्य गरीबी और कड़ी मेहनत के कारण बिगड़ गया जिसे उन्होंने व्यायाम और समुचित आहार से बना रखा था और वे अक्सर बीमार पड़ने लगे। इसी दौरान प्रेमचंद, शांतिप्रिय द्विवेदी, कृष्ण बिहारी मिश्र आदि से उनकी दोस्ती हुई और नैतिक सहारा मिलने लगा। मित्रों के कहने पर वे बाद में प्रयाग गए, जहां सुमित्रानंदन पंत से संपर्क हुआ। काशी में उनका आगमन होता रहता था। 1928 से 1936 के बीच प्रेमचंद, प्रसाद,पंत और निराला के बीच काफी संवाद हुआ। इसे छायावाद का उत्कर्ष काल माना जाता है। 1936 में प्रेमचंद की मृत्यु हुई। 1947 में देश के बंटवारा और 1948 में गांधी की हत्या के बाद नेहरुवाद देश पर हावी होने लगा। नेहरुवादी विचारधारा के बढ़ते प्रभाव में छायावादी रूझान कम पड़ने लगा। इसीबीच प्रगतिशील लेखक संघ तथा इप्टा के प्रभाव का विस्तार होता गया। नेहरुवादी समाजवाद ने इस प्रभाव को और गहरा किया। धीरे-धीरे हिन्दी साहित्य पर मार्क्सवादी आलोचक हावी होने लगे और हिन्दी भाषी समाज साहित्य पढ़ने की जगह हिन्दी सिनेमा देखने लगा। साहित्य केवल बुध्दिजीवियों के बीच सिमट गया। छायावादी रचनाकार लोकप्रिय थे। 1947 - 48 के बाद सिनेमा ज्यादा लोकप्रिय होने लगा। इसी बीच महादेवी वर्मा का रचनात्मक विस्फोट हुआ। कालक्रम में पीछे होने के बावजूद महादेवी की रचनामें छायावादी रूझान है। उनकी रचनाएं लोक में उस तरह तो प्रिय नहीं हुई जिस तरह प्रसाद, प्रेमचंद , पंत या निराला की रचनाओं को लोकप्रियता मिली थी लेकिन हिन्दी अंचल के पढ़े-लिखे वर्ग में महादेवी का अकादमिक महत्व बना रहा। हिन्दी साहित्य के छायावादी दीपक को महादेवी ने 1980 के दशक तक जलाए रखा। हिन्दी के कारुणिक साहित्य में महादेवी वर्मा का वही स्थान है जो हिन्दी सिनेमा संगीत में लता मंगेशकर का है।

मार्क्सवादी साहित्य आलोचना के वर्चस्व के मरुथली युग में हिन्दी भाषी समाज के भीतर महादेवी और लता ने जिन्दगी का उत्सव संभव बनाया; हजारीप्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, फणीश्वर नाथ रेणु , दिनकर, विद्यानिवास मिश्र , नागार्जुन और निर्मल वर्मा आदि ने रचनात्मक हरियाली बनाए रखी। हिन्दी समाज की चेतना में आज भी छायावादी पंचमहाभूत ही प्रस्थान पंचक हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में छायावादी साहित्य परम्परा के साथ नामवर सिंह जैसे मार्क्सवादियों ने न्याय नहीं किया है। परन्तु अन्य विद्वानों ने छायावादी रचनाकारों की जम कर प्रशंसा की है। उदाहरण के लिए श्री नारायण चतुर्वेदी के अनुसार -'तुलसीदास जी के बाद से अब तक हिन्दी काव्य -जगत् में निराला जी की काव्य-प्रतिभा का कोई कवि नहीं हुआ। ' डा0 राधा कृष्णन के अनुसार 'मानवीय भावना से ओत-प्रोत निराला की सारी कविता अतीत और भविष्य से वर्तमान का वार्तालाप है। मनुष्य के स्वच्छंद विकास के मार्ग पर पड़ी हुई सामाजिक, धार्मिक, राष्ट्रीय सभी बाधाओं को मिटा देने का वह प्रयत्न करते रहे।'

इसी प्रकार रूसी विद्वान चेलिशेव ने लिखा है कि अपनी अनेक प्रारंभिक कविताओं में निराला ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर का अनुकरण किया। बाद में भी निराला रवीन्द्रनाथ की रचनाओं का बार-बार रसास्वादन करते थे। उन्हें आंदोलित करने वाले कई प्रश्नों के उत्तर उन्हें इन कृतियों में मिलते थे। रवीन्द्रनाथ की ही भांति निराला भी मध्यकालीन भक्त कवियों के एकात्म मानववादी विचारों पर मुग्ध थे। इन कवियों में प्रथम थे तुलसीदास और दूसरे थे चण्डीदास। सृजनात्मक प्रेरणा के तीसरे महत्वपूर्ण स्रोत थे स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) । चेलिशेव रूसी विद्वान अवश्य थे परन्तु मार्क्सवादी कठमुल्ला नहीं थे। सुमित्रानंद पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' पर उनका शोधकार्य रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और अन्य मार्क्सवादी आलोचकों से गुणात्मक रूप से भिन्न है। विदेशी विद्वान होने के नाते उनकी भारत के बारे में समझ गहरी नहीं थी परन्तु वे निराला एवं पंत की रचनाओं को मार्क्सवादी सांचे में फिट करने की वैसी कोशिश नहीं करते जैसी कोशिश भारतीय मार्क्सवादियों ने की है।

 

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