Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

महात्मा गांधी और उनके आलोचक

महात्मा गांधी और उनके आलोचक

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शुक्लजी ने तत्कालीन सामाजिक स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है - ईस्ट इंडिया कम्पनी के रूप में घृणित वाणिज्यवाद ने भारत में कदम रखा और समाज के द्विस्तरीय विभाजन के आधार पर जो सामंजस्य इतने दिनों से चला आ रहा था उसे अस्त-व्यस्त कर दिया। कम्पनी अपने व्यापारिक प्रचार-प्रसार के लिए बनियों पर आश्रित थी। इसलिए उन्होंने केवल उन्हीं के अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की। कम्पनी के गुमाश्ता और ऐजेण्ट की हैसियत से वृहत्ताम लाभ कमाने के अतिरिक्त उन्होंने अपने क्रय के लिए ही दूसरों से खाली करायी गयी जमीन भी हासिल कर ली। बड़े क्षेत्र के राजस्व का कार्यभार उन्हें सौंपा गया, वे ही दीवान बनाये गये। बर्क ने अपनी पुस्तक ''हेस्टिंग्ज का इंपीचमेन्ट'' में इस स्थिति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया है। भूमि से कृषक श्रेणियों के सम्बन्धा का स्थायित्व सदा के लिए लुप्त हो गया और वे उत्तारोत्तार बढ़ती कंगाली की अवस्था में छोड़ दिये गये। लोभी वकीलों की सेना के साथ न्यायालयों ने उनकी बर्बादी पूरी कर दी। कानूनी जटिलताओं के कारण मुकदमा भूमिगत हितों का ऐसा अपरिहार्य लक्षण हो गया है कि सरकारी माँगों के भुगतान के बाद औसत जमींदार के पास कुछ शेष नहीं बचता। सरकारी भूराजस्व नीति बहुत हद तक जमीन के सच्चे अधिकारी एवं कृषक श्रेणियों की शोचनीय अवस्था के लिए उत्तारदायी है। शुक्लजी आगे कहते हैं कि किसान और जमींदार के बीच कोई अभेद्य दीवार नहीं है। एक किसान जमींदार हो सकता है और एक जमींदार किसान हो सकता है। वे स्वयं देख सकते हैं कि इन चीजों का वास्तविक उद्देश्य सम्पूर्ण ग्रामीण जनसंख्या को अधिक कमजोर दीन किसानों में इस प्रकार बदल देना है जिससे उनमें से किसी के पास सामाजिक गौरव एवं प्रतिष्ठा अर्जित करने का कोई अवसर शेष न रह जाये। शहरी व्यावसायिक भद्रता को ही देश में एक मात्र भद्रलोक माना जाने लगा है। अभी यह देखना बाकी है कि भारत जैसा कृषि प्रधान देश इसे कैसे सहन कर सकता है। गाँव की जनसंख्या में जमींदार, किसान और मजदूर होते हैं। इन तीनों में सर्वाधिक अनभिज्ञ और सहज विश्वासी मजदूरों की अधिकांश जनसंख्या के बीच आन्दोलनकारी अपने उत्तेजक भाषणों से सबसे अधिक अशांति उकसाने में व्यस्त रहे हैं। वस्तुत: उनकी आतंकवादी बर्बर गतिविधियों से किसान और जमींदार समान रूप से उत्पीड़ित हुए हैं। जमींदार शब्द से हम प्राय: बड़े भूमिपति का अर्थ लेते हैं और उन छोटे काश्तकारों के विषय में कभी नहीं सोचते जो अपनी कुलीनता के प्रति जागरूक होते हुए भी अपनी न्यून आय में बड़ी कठिनाई से अपना जीवन निर्वाह कर पा रहे हैं। पिछड़े वर्गों के हितों को धयान में रखते हुए वे कहते हैं कि स्पष्टत: देशी शासक वर्ग ने अपने जनतांत्रिक चरित्र को सिध्द नहीं किया। समय आ गया है जब रियासत के प्रमुख अपने समस्त राष्ट्रीय आदर्शों के साथ सामने आएँ और स्वयं को जनता की सुख सुविधा के लिए समर्पित कर दें जिससे लोक निन्दा के लिए कोई आधार न मिले। उन्हें अपने चारों ओर जनतांत्रिक कार्यप्रकारों (डिमोक्रेटिक बुल वक्र्स) का  विकास करना चाहिए और सरकार के उस स्वरूप का पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं। अपने उदात्ता आचरण के उदाहरण से उन्हें यह दिखा देना चाहिए कि शक्ति और अधिाकार के साथ शील, समानता, करुणा, क्षमाशीलता, नि:स्वार्थता एवं अन्य उच्च गुण किस प्रकार चमक सकते हैं। देशी रियासतों की जनता को भी व्यक्तित्तव के मशीनीकरण के प्रति अपने को सावधान रखना चाहिए। पाश्चात्य शिक्षा ने हमारे नवयुवकों के मस्तिष्क को वैयक्तिक स्वतंत्रता के विचारों से भर दिया जो अधिकांश स्थितियों में इतने अस्पष्ट एवं असंतुलित है कि वे सामाजिक एवं नैतिक अनुशासन के सम्पूर्ण बोधा को निष्प्रभ कर देते हैं। उनके लिए अधिकार का अस्तित्तव पारिवारिक, सामाजिक या राजनीतिक किसी भी क्षेत्र में और किसी भी रूप में घृणास्पद है। सच्ची एवं सृजनात्मक राष्ट्रभक्ति के स्वस्थ विकास के साथ यह भावना सम्पूर्णत: असंगत है। शिक्षा क्षेत्र के हमारे नवयुवकों को यह समझ रखना चाहिए कि देश में र्कोई भी संवैधानिक व्यवस्था लागू हो, किसी राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का सत्ता में समस्तरीय अधिाकार नहीं हो सकता है। हमने यह सोचने की आदत डाल ली है कि जमीन से जुड़ी श्रेणियाँ शिक्षित लोगों के क्रिया-कलापों पर निरंतर अंकुश के रूप में कार्यरत हैं। लेकिन मैं बलपूर्वक कहता हूँ कि नगर के कोठीवालों की तुलना में ये दूसरों का कहीं अधिाक धयान रखते हैं तथा स्वार्थपूर्ण प्रभावों के प्रति कहीं कम नमनशील हैं।

उपरोक्त उध्दारणों को हिन्द स्वराज के अधयायों के साथ मिलाकर देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि शुक्लजी की चिंता और गांधीजी की चिंता में काफी कुछ समान है। दोनों अंग्रेजी राज में भारत की दुर्दशा से मुक्ति के लिए जिंदगी भर अपने-अपने क्षेत्र में अपनी-अपनी दृष्टि से प्रयासरत रहे। लेकिन भारत जैसे विविधाता वाले बड़े देश में किसी एक व्यक्ति की दृष्टि या विचार प्रणाली से सारी समस्याओं के विश्लेषण और उनके समाधान के लिए चिंतन के क्रम में कुछ असहजता, असंगति एवं विसंगति का आ जाना या दिखना अस्वभाविक नहीं है। फलस्वरूप लोकमंगल के प्रति समर्पित दो व्यक्तियों में भी मतभेद हो सकता है।

लोकमंगल की अवधारणा भारतीय परंपरा के प्रवृत्तिमार्गी स्वरूप का युगानुकूलन है। जो तिलक के लिए लोकसंग्रह है तथा गांधी के लिए सर्वोदय है वह शुक्लजी के लिए लोकमंगल है। तिलक महाराज ज्ञानमार्गी थे। गांधीजी भक्तिमार्गी थे और शुक्लजी कर्ममार्गी थे। तिलक महाराज ने शास्त्र गढ़ा - शास्त्रीय वैदिक परंपरा का युगानुकूलन किया। अपने अंतिम अर्थों में तिलक महाराज समर्थ रामदास की तरह राजसत्ता का भारतीय दृष्टि से नियमन करना चाहते थे। महात्मा गांधी का मूल उद्देश्य लोकसत्ता को राजसत्ता से स्वायत्त बनाना था। तिलक महाराज ने नारा दिया था ''स्वराज हमारा जन्म सिध्द अधिाकार है''। उनका जोर राज्य पर था। तिलक महाराज की चिन्ता ब्रिटिश राज्य से मुक्त भारतीय राज्य था। उनकी चिंता राज्य की ब्रिटिश अवधारणा को चुनौती या व्यक्ति की तुलना में राज्य को नियमित करना नहीं था। जबकि हिन्द स्वराज में गांधीजी का उद्देश्य 'स्वराज' था। उसमें जोर 'स्व' पर था। इसमें गांधीजी उस सनातन भारतीय सभ्यता के सूत्रों का युगानुकूलन कर रहे थे जिसमें सभ्यता का केन्द्र राजा या राज्य नहीं था बल्कि धर्म और अपनी आत्मा को पहचान चुका स्वायत्त व्यक्ति था। वे राज्य की सर्वोच्चता को सभ्यता के लिए परमावश्यक नहीं मानते थे। सभ्यता के कई केन्द्रों में धर्म के वाहक के रूप में, राज्य भी एक केन्द्र था। परंतु जीवन का मानदंड गांधी के लिए राज्य या राजनीति से निर्धारित नहीं होता था।

रामचन्द्र शुक्ल की चिन्ता अलग थी। यह उनकी व्यक्तिगत चिन्ता नहीं थी। हिन्दी भाषी समाज के प्रतिनिधिा के रूप में उनकी सर्वप्रमुख चिन्ता हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लोकजागरण को साहित्य के प्रतिमान द्वारा नियमन करने की चिन्ता थी। अंग्रेजी राज में व्यापार के जितने बड़े केन्द्र थे वे सभी के सभी हिन्दी भाषी क्षेत्र के बाहर थे - बम्बई, कलकत्ता, मद्रास, सूरत, इत्यादि। हिन्दी भाषी क्षेत्र में राजा-रजवाड़े-सामन्त अंग्रेजी राज के साथ सहयोग करना चाहते थे। आधुनिकता की पश्चिमी शैली की अपनी समस्यायें रहीं हैं और अपना अंतर्विरोधा रहा है। परंपरा की भी अपनी समस्यायें होती है और अपना अंतर्विरोधा होता है। शुक्लजी की अंग्रेजी राज के विरूध्द असहयोग के गांधीवादी आग्रह से जो असहमति है वह तो गोखले, राणाडे, मेहता जैसे नरमपंथियों, सुधारवादियों से मिलती-जुलती है जबकि गांधी का असहयोग तिलक और श्रीअरबिन्दो घोष के स्वदेशी-स्वराज के गरमपंथी राष्ट्रवाद के अनुकूल था। वर्गहित एवं राष्ट्रहित में राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने की परंपरा यहाँ याद करने की जरूरत है। यह अकारण नहीं है कि लोकमंगल का मानक शुक्लजी रामचरितमानस से लेते हैं। रामचरितमानस का मानक राज्यतंत्र से आता है। राजतंत्र का लक्ष्य लोकमंगल हो सकता है परंतु वह है राज्य केन्द्रित एवं राजा केन्द्रित ही। जब तुलसी ने मानस की रचना की थी तो अकबर का मुगलिया राजतंत्र था। इसके विकल्प में तुलसी त्रेता युग की राज्य व्यवस्था से प्रेरण लेते हैं।

भारत जैसे सभ्यतामूलक समाज के सभी पक्षों का प्रामाणिक ज्ञान यदि इतना सरल होता तो प्राचीन काल से ही परंपरा में नौ प्रकार के वैधा दर्शन प्रणाली की क्या आवश्यकता थी? अत: शुक्लजी की कुछ स्थापनाओं या उनकी कुछ व्याख्याओं से असहमत होना स्वभाविक है परंतु समाज या साहित्य को समझने के लिए शुक्लजी ने जो साधाना किया है उसको नजरअंदाज करके हम अपना ही अहित करेंगे। शुक्लजी के पास भारतीय संस्कृति, इसकी समस्याओं एवं समाधान की दृष्टि से कोई फार्मूला नहीं है। ऐसे भी भारतीय परंपरा के बारे में फार्मूला देने में सावधान रहने की आवश्यकता है। भारतीय परंपरा अत्यंत प्राचीन और विविधा है।

महात्मा गांधी, बालगंगाधार तिलक और रामचन्द्र शुक्ल के बीच की चीज हैं। उससे भी बढ़कर वे तुलसी औैर कबीर के बीच की चीज हैं। गांधी वर्णाश्रम की नई व्याख्या प्रस्तुत करते है परंतु वर्णाश्रम का विरोधा कभी नहीं करते। तिलक भी वर्णाश्रम की नई व्याख्या प्रस्तुत करते हैं परंतु ब्रेड लेबर के प्रति तिलक का गांधी जैसा जोर नहीं है। गाँधाी वर्णाश्रम के समर्थक तो हैं पर वे क्षात्रधर्म के समर्थक नहीं हैं। वे शूद्र धर्म के समर्थक हैं।

यह ठीक है कि गांधीजी खुद बनिया थे। यह भी ठीक है कि कुछ वैश्यों से उनकी निकटता थी (बिड़ला, बजाज आदि)। यह भी कि उनके असहयोग आन्दोलन से वैश्य वर्ग को अन्तत: लाभ ही हुआ परंतु शुक्लजी का आरोप अतिरंजित है। जो आरोप शुक्लजी गांधी पर लगाते हैं वही आरोप खगोलीकरण के समर्थक स्वदेशी के समकालीन समर्थकों पर लगाते रहें हैं कि डब्लू टी ओ से अलग होकर हमलोग भूखे मर जाएंगे। दरअसल गांधीजी यह मानते थे कि निवृत्तिा मार्ग भी इहलोकवादी निष्काम कर्म का आधार बन सकता है जबकि शुक्लजी प्रवृत्तिा मार्गी क्षात्रधर्म के समर्थक थे। गांधीजी की मौलिकता इसमें थी कि वे निवृत्तिा मार्ग की सामूहिक साधाना को इहलौकिक निष्काम कर्म के रूप में प्रस्तुत कर रहे थे। तिलक, शुक्ल और गांधी तीनों की व्यक्तिगत साधाना या स्वभाव भले ही अलग था परंतु सामाजिक विकास के लिए तीनों गीता से प्रभावित कर्मवाद के एक हद तक समर्थक माने जा सकते हैं।  

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