Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

कुजात गांधीवादी लोहिया

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कुजात गांधीवादी लोहिया

 

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 गांधी के सनातन धर्म की लोहिया ने लोक के लिए व्याख्या की, विनोबा ने शास्त्र के लिए व्याख्या की। ऐसा नहीं है कि लोहिया की व्याख्या अशास्त्रीय है और विनोबा की व्याख्या लोक विरूध्द है। परन्तु दोनों की अदा अलग-अलग है। विनोबा ने गीता-प्रवचन  किया। अन्य शास्त्रों पर भी विद्वतापूर्ण टीकाएं लिखीं। लोहिया ने अपनी राजनीति में धर्म-संस्कृति के लोकोपयोगी मुद्दे उठाए। उन्होंने लोक धर्म की मर्यादा कायम करने वाले भाषण दिए। लेखन भी  किया। ओंकार शरद द्वारा संपादित भारतमाता-धरतीमाता शीर्षक पुस्तक में लोहिया के सांस्कृतिक लेख संकलित है। इन लेखों में गांधीजी के सांस्कृतिक विमर्श को विस्तार मिला है। उदाहरण के लिए लोहिया लिखते हैं कि तुलसीदास एक रक्षक कवि थे। जब चारों तरफ से अझेल हमले हों, तो बचाना, थामना, टेक देना, शायद ही तुलसीदास से बढ़कर कोई कर सकता है। जब साधारण शक्ति आ चुकी हो, फैलाव, खोज, प्रयोग, नूतनता और महाबल अथवा महा-आनन्द के लिए दूसरी या पूरक कविता ढ़ूँढनी होगी। उसी तरह लोहिया कहते हैं कि वे जब राम, कृष्ण और शिव कहते हैं तो जाहिर है, उनकी बीबियों को शामिल कर लेते हैं। तथा उनके सेवकों को भी शामिल कर लेते हैं। क्योंकि ऐसे भी इलाके हैं जहाँ हनुमान चलते हैं जिसके साफ माने हैं कि वहाँ राम चलते हैं;ऐसे इलाके हैं जहाँ काली और दुर्गा चलती हैं इसके साफ माने हैं कि वहाँ शिव चलते हैं। हिन्दुस्तान के इलाके हैं जहाँ पर इन तीनों ने अपना दिमागी साम्राज्य बना रखा है। दिमागी साम्राज्य भी रहा करता है। विचारों का, किंवदन्तियों का।

मोटे तौर पर 1951-52 के आम चुनाव में शिव का इलाका वह इलाका था जहाँ कम्युनिस्ट नम्बर दो हुए थे। उसी तरह कृष्ण का इलाका वह था जहाँ संघ और रामराज्य परिषद वाले नम्बर दो हुए थे। मोटे तौर पर राम का इलाका वह था जहाँ सोशलिस्ट नम्बर दो हुए थे। कांग्रेस हर जगह नं एक हुई थी। यह भारतीय राजनीति पर एक अनोखी दृष्टि है जो परंपरा से निकली है। परंपरा और प्रयोग के प्रति जैसा समर्पण गांधीजी में था लोहिया वही गुण तुलसीदास या राम, कृष्ण, शिव के बहाने अभिव्यक्त करते हैं। लोहिया भक्ति आंदोलन की सांस्कृतिक उपज थे और उनके गैर- कांग्रेसवादी राजनीति को समझने के लिए उनके उपरोक्त विचारों के मर्म को समझना आवश्यक है। गांधी के रामराज्य की अवधारणा को लोहिया तुलसी के रामचरित मानस में खोजते हैं और लोकजागरण के लिए रामायण मेला आयोजित करते हैं। यह तिलक महाराज के गणेश महोत्सव और महात्मा गांधी के आश्रमों में भजन- कीर्तन की परंपरा का विस्तार नहीं तो और क्या है? वे कहते हैं कि तुलसीदास जैसी समन्यवादी दृष्टि स्वतंत्र हिन्दुस्तान को बहुत ठोकर खाने के बाद ही मिलेगी और भारत के समाजवादी आंदोलन के इतिहास में इन्हीं ठोकरों को खाकर गिरते-पड़ते गैर-कांग्रेसवादी विकल्प खड़ा करने की कोशिश हमें सदैव दिखती रही है। लोहिया कहते हैं कि तुलसी या और किसी भी रामायण में सामयिक और क्षण-भंगुर चीजें बहुत हैं। ये उस युग की प्रतीक हैं। ऐसे सब वर्णनों में तुलसी या और किसी छवि का दोष नहीं है। दोष अगर है तो समय का है। परन्तु तुलसी के मानस में कालजयी तत्वों की भी कमी नहीं है। लोहिया के शब्दों में आनन्द, प्रेम और शान्ति का आह्वान तो रामायण में है ही, पर हिन्दुस्तान की एकता जैसा लक्ष्य भी स्पष्ट है। सभी जानते हैं कि राम हिन्दुस्तान के उत्त्र-दक्षिण की एकता के देवता थे और कृष्ण पूर्व-पश्चिम की एकता के देवता थे। लोहिया के अनुसार आधुनिक भारतीय भाषाओं का मूल - स्रोत राम - कथा है। कम्बन की तमिल रामायण, एकनाथ की मराठी रामायण, कीर्तिवास की बंगला रामायण और ऐसी ही दूसरी रामायणों ने अपनी - अपनी भाषा को जन्म और संस्कार दिया। तुलसी रामायण की धार्मिक कविता ऐसी है कि जैसी, शायद दुनिया भर में और कोई कवित्वमय काव्य नहीं है। रामायण जिस किसी विषय पर जो कुछ कहती है उसे पवित्र बना देती है। लोहिया यह भी कहते हैं कि शूद्र और पिछड़े वर्गों के मामलों में रामायण में काफी अविवेक भी है परन्तु  यह ध्यान रखना चाहिए कि शूद्र को हीन बनाने की जितनी  चौपाइयां हैं, उनमें से अधिकांश कुपात्रों ने कही हैं अथवा कुअवसर पर। इसे समय का दोष और कवि को समय का शिकार समझकर रामायण का रस पान करना चाहिए।

 

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