Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

सनातन सत्य

सनातन सत्य

पेज 2

वर्णाश्रम धर्म का आधार भी कर्तव्य और अधिकार का युग्म ही है। बिना कर्त्तव्य निभाये आपको अधिकार नहीं मिलता। कर्त्तव्य आपके नियंत्रण में है, अधिकार भगवान या समाज के नियंत्रण में है (दूसरों के नियंत्रन में है)। अधिकार आपके कर्त्तव्य का फल है। आप जिस नीयत से जिंदगी जीते हैं वह आपके कर्त्तव्य और अधिकार भावना में अभिव्यक्त होता है। सोलहकलाओं से पूर्ण हुए बिना रण छोड़ने की कूबत (सामर्थ्य) आपमें नहीं आती। रण छोड़ना सन्यास लेने जैसा मुश्किल 'कर्त्तव्य' है। श्री कृष्ण के रणछोड़ बनने में एक लीला-भाव है। यह आम मनुष्यों के बूते की बात नहीं है। ब्राहमण वर्ण में आचार्य पूर्वपक्ष है, शिष्य उत्तर पक्ष है, विद्या संधि है और प्रवचन संधान है। कर्त्तव्य-अधिकार युग्म के ये चार पक्ष हैं। पश्चिमी परम्परा में थीसिस पूर्वपक्ष है, एंटीथीसिस उत्तर पक्ष है, सिन्थेसिस संधि है। पश्चिम में कर्त्तव्य - अधिकार युग्म के ये तीन पक्ष हैं। सनातन परम्परा में जिन्दगी के नौ रस हैं जबकि पश्चिमी परम्परा में पांच रस हैं। अपनी अपनी परम्परा में हर विमर्श एक न्याय संगत कर्त्तव्य -अधिकार के  युग्म की व्यवस्था रखती है ताकि आम आदमी जिन्दगी का आनंद ले सके। हर विमर्श एक फेनोमेनल (सांस्कृतिक रूप से निर्मित नाउमेनल सत्य से वंचित) यथार्थ होती है।

आप जब भी संकल्पित होते हैं ईश्वर आपके समर्पण की परीक्षा लेने के लिए लीला शुरू कर देते हैं और आपका चित्त चंचल हो जाता है। आज की शिक्षा व्यवस्था आपको वैचारिक रूप से वर्ण संकर बना देती है। वेदों में सात ऋषियों और 49 मरूत प्राणों का वर्णन है। सातो ऋषियों के मंडल बंटे हुए हैं। हर मंडल में देवता और विषय अलग-अलग हैं। उपवेद अलग-अलग हैं। हर ऋषि का कुल, गोत्र और प्रवर चलता है। हर कुल का अपना व्यवसाय और प्रवृत्ति होती है। कुल-गोत्र की विरासत व्यक्ति को चेतन, अवचेतन और अचेतन स्तर पर प्रभावित करता है।

श्रुति की शिक्षा नहीं दी जा सकती। स्मृति और पुराणों की शिक्षा दी जा सकती है। श्रुति गुरूमुखी विद्या है। यह केवल पुत्र और शिष्य को दी जा सकती है। यह विद्या ट्रांसप्लांट की जाती है अथवा शक्तिपात द्वारा उत्तराधिकार में दी जाती है। यह औपचारिक शिक्षा का विषय नहीं है। यह अनाधिकारी को नहीं दिया जा सकता।

वैदिक ऋचायें मध्यमा और पश्यंति के बीच की स्थिति में पहुंचने पर खुलती हैं। मध्यमा और पश्यंति वाक् की बीच की स्थिति है जिसे परा, पश्यंति, मध्यमा और बैखरी कहते हैं। बैखरी बोला हुआ निम्नतम वाक् है और परा वाक् की उच्चतम स्थिति है। वेदों के युग के बाद दर्शन का युग शुरू हुआ। पहला दार्शनिक सम्प्रदाय बौध्दों ने विकसित किया। वैदिक दर्शनों का  व्यवस्थित विकास वेदांगों के आधार पर बाद में हुआ है। वेदांग भी छ: हैं और वैदिक दर्शन भी छ: ही हैं।

 

हर व्यक्ति में 23 क्रोमोजोम मां का और 23 क्रोमोजोम पिता का होता है। इसलिए हर व्यक्ति अर्धनारीश्वर है। हर व्यक्ति नीलकंठ है। हर व्यक्ति का गर्दन उसके पूरे शरीर से सांवला होता है। हर व्यक्ति का गर्दन भोजन के प्रदूषण (जहर) का अधिकांश भाग गर्दन में ही रख लेता है केवल 10 प्रतिशत जहर अंदर जाता है जिससे बीमारी एवं बुढ़ापा आती है।

गंगा के पानी में पोटासियम अधिकमात्रा में होता है जिससे ब्रेन तेज होता है। इसी लिए भारतीय संस्कृति में, खासकर उत्तर भारत में, गंगा के पानी अथवा गंगाजल का इतना ज्यादा महत्व है। इसे पवित्रतम जल माना जाता है और इसकी कुछ बूंदे शरीर पर छीट लेने से आदमी पवित्र हो जाता है। सावन महीने में भगवान शिव के ऊपर गंगाजल से अभिषेक करने का रिवाज है। मरते हुए व्यक्ति को अंतिम समय में गंगाजल दिया जाता है ताकि उसकी आत्मा मुक्त हो सके।

जाति जन्म पर आधारित एक जैविक संस्था है जबकि वर्ण गुण, कर्म, विभाग पर आधारित एक सांस्कृतिक संस्था है। दोनों कभी एक नहीं थे। न आज एक हैं। न कभी एक होंगे। हिन्दू समाज एवं संस्कृति में दोनों का अपना अपना महत्व है।

भारत को एक सम्पूर्ण राष्ट्र के रूप में गुलाम नहीं बनाया जा सकता। इसकी भौगोलिक सीमा पर आक्रमण होता रहा है। इसकी स्थूल व्यवस्था कालबाह्य होने पर टूटती रही है। इस टूटन के क्रम में विदेशियों का स्थूल शासन भी इसके भूगोल के कुछ हिस्सों पर होता रहा है। परन्तु इसके सनातन प्रवाह में आक्रमक या विदेशी शासक पालतू बनते रहे हैं। एक सनातन सभ्यता के रूप में भारत महाकाली के शरीर का विस्तार है तथा इसकी चेतना में महाकाल की आत्मा है।

भारत की सबसे महत्वपूर्ण समस्या देसी खेती, बाढ़ और सूखा तथा वैकल्पिक ऊर्जा के पारम्परिक स्रोतों के प्रति प्रभु वर्ग की उदासीनता एवं नासमझी है। पिछले एक दशक में भारत में करीब 2 लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या किया है। भारत की आबादी 1 अरब 20 करोड़ है। वैश्विक स्तर पर भी दुनिया की आधी भूखी आबादी उन लोगों की है, जो खुद खाद्यान पैदा करते हैं। यह सीधे-सीधे खेती में निवेश होने वाले अधिक धन, रासायनिक पदार्थों और बड़े निवेश से संबंधित है और इन सबकी शुरूआत हुई हरितक्रांति के नाम पर। खेती के काम में महंगे निवेश के चलते किसान कर्ज में फंस जाते हैं और फिर कर्ज में फंसे हुए किसान जो कुछ पैदा करते हैं, कर्ज चुकाने के लिए उन्हें सब अनाज बेचना पड़ता है। इसका उपाय यही है कि सस्ते, कम लागत वाले कृषि उत्पादन को बढ़ावा दिया जाए और ऐसी कृषि नीति को बढ़ावा दिया जाए जो कृषि और पारिस्थितिकी के सिध्दांतों पर आधारित हो। कारपोरेट कृषि और ठेका कृषि इस समस्या का सही समाधान नहीं है। खाद्य सुरक्षा में सुरक्षित, स्वास्थ्यवर्ध्दक, सांस्कृतिक रूप से संगत और आर्थिक रूप से वहनीय खाधान्न का अधिकार भी निहित है। इस देश में करीब छह करोड़ पचास लाख लोग भूख की समस्या से गावों में पीड़ित है। लेकिन किसान  आत्महत्या की समस्या मूलत: महाराष्ट्र के विदर्भ (कपास की खेती) और आंध्रप्रदेश (तंबाकु की खेती) में है। इनको अन्य फसलों की खेती करनी चाहिए। सब्जियों की खेती एक अच्छा विकल्प हो सकता है।

ढांचागत विकास के नाम पर केवल सड़क, बिजली, पुल तथा फ्लाइओवर बन रहे हैं। बाढ़ और सूखा से निबटने के लिए नदियों को जोड़ना, डैम बनाना, नहर बनाना, तालाब बनाना भी उतना ही जरूरी है। पानी की समस्या और वैकल्पिक ऊर्जा की समस्या को प्राथमिकता मिलना जरूरी है। व्यावसायिक शिक्षा के साथ-साथ राजनीतिक एवं पौरोहित्य प्रशिक्षण दिया जाना भी युग की मांग है। युगानुकुल शिक्षा और विकेन्द्रित विकास के बिना प्रजातंत्र की खूबियां नहीं निखर पाती।

 

पिछला पेज डा० अमित कुमार शर्मा के अन्य लेख  

 

top