Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भाजपा की विडंबना

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भाजपा की विडंबना

 

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 भाजपा नेता आधारित पार्टी नहीं है। यह तर्दथ हल के लिए उपजी पार्टी भी नहीं है। भाजपा विचारधारा आधारित पार्टी है। इसके पास तपस्वी कार्यकत्तर्ओं की कमी नहीं है। संघ इसकी रीढ़ है और हिन्दुत्व इसकी विचारधारा। यह एक लचीली विचारधारा है। अपने हाल के प्रेस कांफ्रेंस में मोहन भागवत ने कहा कि हिन्दुत्व का अर्थ भारतीय मानवता है। यह अलग बात है कि मीडिया ने इसे प्रमुखता नहीं दिया परंतु यह हिन्दुत्व की गुणात्मक रूप से नई परिभाषा है। एक अन्य संदर्भ में उन्होंने हिन्दुत्व का अर्थ सीधे - सीधे मानवता कहा। कांग्रेस की तरह भाजपा का भी अपना वोट बैंक है। असल सवाल यह है कि भाजपा दुबारा केन्द्रीय सत्ता प्राप्त कर पायेगी या नहीं? ज्यों - ज्यों भाजपा बढ़ेगी गैरस्वंयसेवकों का अनुपात भी बढ़ेगा। सत्ता में आने के लिए या सत्ता में बने रहने के लिए व्यवहारिक नजरिया अपनाना जरूरी होता है। कांग्रेस ने 1885 से कई बार वैचारिक पलटा खाया है। पहले अंग्रेजों का समर्थन, फिर आंशिक आजादी की मांग और बाद में पूर्ण आजादी की मांग। पहले गांधीवाद, फिर नेहरू का समाजवाद और फिर राजीव गांधी का इकींसवी सदी की तैयारी का नारा तथा नरसिम्हाराव का उदारवाद और अब सोनिया गांधी का वंशवाद। यदि कांग्रेस में इतना लचीलापन नहीं होता तो वह कब की इतिहास के कूडेदान में समा जाती। उसकी एक मात्र विचारधारा है सत्ता प्राप्ति। पूंजीवादी समाज एवं अर्थव्यवस्था में राजनीतिक विचारधारायें गौण हो जाती हैं। यही यूरोप और अमेरिका में भी होता है। भाजपा को भी वैचारिक लचीलापन एवं उदारता अपनाये बिना सत्ता नहीं मिलने वाली। अटल - आड़वाणी दोनों इसको समझते थे। नई पीढी का झगड़ा भी इसीलिए है कि कैसे सत्ता प्राप्त की जाये? कैसे कर्यकत्तर्ओं में जोश भरा जाये? इसमें 18 से 45 वर्ष के वोटरों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का भी दबाव है। यही दबाव कभी रामजन्मभूमि को मुद्दा बनवाता है और कभी जिन्ना को मुद्दा बनवा देता है। कभी प्रमोद महाजन को सामने लाता है और कभी नरेन्द्र मोदी को सामने लाता है।

देश के प्रभु वर्ग को नाराज करके सत्ता का नियमन संभव नहीं है। प्रभु वर्ग का हृदय परिवर्तन करके या उनकी दृष्टि बदल कर ही सत्ता को मंगलकारी बनाया जा सकता है। भाजपा की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह प्रतिक्रिया में खड़ा किया गया संगठन है। इस देश की तासीर को बिना व्यवस्थित तरीके से समझे बिना ही यह देश का पुनर्निमाण करना चाहता है। देश-काल-परिस्थिति के अनुसार युगानुकुल संस्थाओं का विकास किए बिना ये लोग संगठन और कार्यक्रम से व्यवस्था परिवर्तन करना चाहते हैं।

 कार्यकर्त्ता या संगठकों के प्रशिक्षण का इनके पास कोई ठोस पाठ्यक्रम या प्रशिक्षण केन्द्र हीं नहीं है। शिविर लगाकर, बैठकें करके और नारा लगाकर ये लोग संगठन तो चला लेते हैं। कार्यक्रम भी कर लेते हैं लेकिन इससे व्यवस्था चलाने या बदलने की दक्षता/कुशलता/निपुणता/ तो नही आती। फलस्वरूप 1991 से जब जब इनको राज्य स्तर पर सरकार बनाने या चलाने का मौका मिला ये लोग कांग्रसी कार्यकर्त्ताओं से ज्यादा अक्षम एवं अहंकारी साबित हुए। इनके राज्य में नौकरशाहों, दलालों और धंधेबाजों की ज्यादा चली।  
समाज की प्रकृति और समाज के स्वरूप के बारें में ये लोग न तो कोई सिध्दांत गढ़ पाए और न हीं आदर्श व्यवहार का कोई मॉडल हीं खड़ा कर पाए। हिन्दूवादियों की सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि ये लोग मनुष्य के स्वभाव, सत्ता, जीवन तथा दर्शन के बारे में न कोई सुनिश्चत अवधारणा विकसित कर पाए, न प्रशिक्षण संस्थान विकसत हुआ, न टेस्ट केस अथवा प्रेरक उदाहरण विकसित कर पाए। बिना साधना, बिना तपस, बिना प्रशिक्षण् के जो कार्यकर्ता मिलेंगे उनका नेतृत्व कौन मानेगा और क्यों मानेगा? और संगठन ने अगर इनको पद, प्रतिष्ठा और अधिकार दे भी दिया तो इनको भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डूबते कितनी देर लगेगी।

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