Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय सिनेमा का लोकशास्त्र

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भारतीय सिनेमा का लोकशास्त्र

 

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भारत में फिल्में लोक के स्तर पर दो अलग तरह से प्रिय एवं स्थापित होती है। इस दृष्टि से लोकप्रिय (ब्लॉक बस्टर्स) फिल्मों का दो वर्गीकरण किया जा सकता है। एक को ''लोकप्रिय'' फिल्म कह सकते हैं और दूसरे को ''कालजयी'' फिल्म कह सकते हैं। लोकप्रिय फिल्म में 'क्षण की प्रियता' होती है। सत्य का आभास होता है। दूसरी ओर 'कालजयी' फिल्म में सत्य का अंश संकेतित या निवेदित होता है। कालजयी फिल्में लोक में क्षणिक रूप से प्रिय होने के बाद लोक में स्थापित भी हो जाती हैं। लोकप्रिय फिल्में पश्चिमी अर्थो में 'मेटाफोरिक' होती हैं जबकि कालजयी फिल्में 'मेटानोमिक' होती है। पश्चिम में 'मेटाफोरिक' को 'फेनोमेना' कहते हैं। वहां मेटाफोरिक को उत्कृष्ट कला माना जाता है। हमारे यहां मेटानोमिक या मेटानोइक (कालजयी, लाक्षणिक) कला न्यूमेना (सत्य) का लक्षण या अंश है। यह सर्वोत्ताम कला का रूप है जबकि 'मेटाफोरिक कला' कला का अविकसित या अल्पविकसित रूप है। कालजयी फिल्में गुरू-शिष्य या उस्ताद-शागिर्द परम्परा से निकला हुआ या ऋषि परम्परा की तरह आत्मनुभूति से गुजरा हुआ फिल्मकार ही बना पाता है। कभी-कभी कोई निर्दोष - सुधी फिल्मकार किसी ज्ञात-अज्ञात प्रेरणा से जाने-अनजाने भी बना लेता है। या कहें, कभी-कभी ऐसी फिल्में अपने आप भी बन जाती हैं। सामान्यत: कालजयी फिल्मों का अवतरण ब्रह्मांडीय घटना के रूप में होती है। इन फिल्मों का सेल्फ वैल्यु होता है।                   

भारत में सिनेमा के प्रारंभ में विभिन्न क्षेत्रों और भाषाओं के लोग उसी तरह जुड़े जैसे हॉलीवुड के सिनेमा में यूरोपीय देशों के विभिन्न भाषा-भाषी लोग जुडे थे। लेकिन हॉलीवुड की फिल्मों और अमेरिका की भाषा अंग्रेजी है। भारतीय सिनेमा के प्रारंभ में पांच प्रमुख केन्द्र थे - कलकत्ता, बम्बई, लाहौर, मद्रास और कोल्हापुर - पुणे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कलकता, लाहौर और पुणे के कलाकार - तकनीकी विशेषज्ञ भी बम्बई चले आए। कुछ बम्बई से पाकिस्तान भी गए। विभिन्न क्षेत्रों से आए लोगों ने व्यावहारिक कारणों से अपनी मातृभाषा के स्थान पर हिन्दी में फिल्म बनाना शुरू किया। शांताराम मराठी भाषी थे, मेहबूब खान गुजराती बोलने वाले, बिमल रॉय, अमिय चक्रवर्ती, फनी मजूमदार आदि बंगाली भाषी थे तो चेतन - देव - विजय आनंद, बलदेवराज - यशराज चोपड़ा, पृथ्वीराज - राजकपूर, केदार शर्मा और दिलीप कुमार पंजाबी भाषी। एस. एस. वासन मद्रासी थे। सोहराब मोदी पारसी मिश्रित मराठी हिन्दी बोलते थे। अधिकंाश तकनीकी विशेषज्ञ अंग्रेजी में सोचते - बोलते - काम करते थे। अत: हिन्दी सिनेमा को धीरे - धीरे राष्ट्रीय सिनेमा का दर्जा तो प्राप्त हो गया लेकिन हिन्दी फिल्म उद्योग के कामकाज की भाषा (भारत सरकार और विश्वविद्यालयों के कामकाज की भाषा की तरह) अंग्रेजी हो गई। सिनेमा के बारे में अधिकांश किताबें भी अंग्रेजी भाषा में हीं लिखी गई। ज्यादातर पटकथा अंग्रेजी भाषा में अंग्रेजीदां लोगों ने लिखे। संवाद भी अंग्रेजी भाषा में ही होते थे। एक मुंशीनुमा अनुवादक को संवाद लेखक का दर्जा दिया गया। विश्व सिनेमा में कथा- पटकथा ही एकमात्र श्रेणी है। कभी-कभी 'एडाप्टेड फ्रॉम ओरिजनल' (मूल से रूपांतरित) वाली श्रेणी भी दिखती है। लेकिन कथा-पटकथा से अलग संवाद लेखक की श्रेणी भारतीय सिनेमा की मौलिक विशेषता बन कर उभरी है। जिस तरह औद्योगिक क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के पार्ट - पूर्जों को जोड़कर (एसेंबलिंग करके) 'मेड इन इंडिया' लिखने का चलन भारतीय मध्यवर्ग के व्यावसायिक अवसरवाद की मौलिक विशेषता बन कर उभरी है और आउटसोर्सिंग के जमाने में भारतीय पेशेवर वर्ग के सोशल कैपिटल (उपनिवेशी संस्कार) के रूप में प्रशंसित हो रही है इसका बीज रूप भारतीय सिनेमा में अनुवादक मुंशी की रचनात्मकता को प्रोत्साहित करने के लिए संवाद-लेखक के रूप में उसकी कथा- पटकथा लेखक से स्वतंत्र पहचान देने के रूप में छिपा हुआ है। इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों परिणाम हुए। इसका सबसे सकारात्मक पक्ष तो यही है कि विदेशी पटकथा पर ''देसी ब्लॉक बस्टर्स'' का निर्माण होने लगा। इन ब्लॉक बस्टर्स में गीत-संगीत के भारतीय छौंक के साथ-साथ इन मुंशीनुमा अनुवादकों के ''वन लाइनर्स'' का कमाल भी होता था। इसका दूसरा पक्ष यह था कि अपने महत्व को स्थापित करने के लिए कई बार ये मुंशीनुमा अनुवादक मूलकथा भावना और संदर्भ को जाने-अनजाने  बदल देते थे और ताली पड़ने वाले अजीबो-गरीब लेकिन मौलिक - दिल को छू लेने वाले वाक्य - लिख मारते थे। इससे ऊपरी तौर पर फिल्म की सम्पूर्णता - अद्वैत खंडित होती थी और कथानक के अर्थ में असंबध्द संवादों के कारण असंगति साफ दिखती थी। लेकिन कई बार फिल्म इन्हीं बेतुके लेकिन संवेदनशील संवादों के कारण हिट हो जाती थी और वर्षों बाद भी यही संवाद याद रह जाते थे और फिल्म की पटकथा विस्मृति की शिकार हो जाती थी। इसकी समाजशास्त्रीय व्याख्या यह है कि इन संवादों के माध्यम से दर्शक अपने दैनिक जीवन तथा समकालीन समय एवं चल रही फिल्मी कथानक का अतिक्रमण करते हुए सनातन सत्य एवं सनातन लीला का साक्षात्कार करने लगता है। इन अर्थों में ये संवाद भारतीय महाकाव्यों में वर्णित गरूड़ महाराज या मानस के हंस, या कबूतर, तोता या मैना की वाणी का स्मरण कराते हैं और संसार से जगत की यात्रा कराते हैं, पिण्ड से ब्रह्माण्ड की यात्रा कराते है। अंधकार से प्रकाश की ओर प्रेरित करते हैं।  

आज भारतीय सिनेमा को, खासकर लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा को पश्चिम में बहुत लोकप्रियता मिल रही है। इसका दो अंतर्संबंधित कारण है। एक, पश्चिमी देशों में औद्योगिक क्रांति का उन्माद थमने लगा है। मैनु फैक्चरिंग (औद्योगिक उत्पादन) और सर्बिस सेक्टर (सेवा क्षेत्र) में पश्चिम के लोग गैर पश्चिमी उद्यम के मुकाबले लगातार पिछड़ रहे हैं। उनके लोग मैनेजमेंट (प्रबंधन) और शेयर ब्रोकर (दलाल) बनने और पिछले 200-300 वर्षों के सोशल कैपिटल (उपनिवेशवादी विरासत) को भोगने में लगे हैं। उनके यहाँ थियोलॉजी, विज्ञान, दर्शन और कला जैसे चित्ता को परिष्कृत करने वाले अध्यन-चिंतन-मनन-साधना में ठहराव और पतन की चर्चा 1968 के आसपास से उत्तार आधुनिक समीक्षकों ने शुरू कर दी थी। इसकी पहचान नित्से (1844 & 1900) और हैनिमन के समय से ही होने लगी थी। 1989 & 1990 के बाद तथाकथित एक धु्रवीय विश्वग्राम में उपरि तौर पर तो अमेरिकी दादागिरी है लेकिन उनकी दादागिरी उनके समाज की आंतरिक सृजनशीलता एवं अंदरूनी स्वास्थ्य पर आधारित नहीं होकर कृत्रिम टॉनिक (वियाग्रा, अमेरिकी सेना और हॉलीवुड फिल्मों के राजनीतिक अर्थशास्त्र) पर आधारित है। उनकी फिल्मों के दर्शक लगातार घट रहे हैं। इस बात को तुलनात्मक रूप से ही समझा जा सकता है। हॉलीवुड सिनेमा की 1989 से वही स्थिति हो गई है जो भारत में अंग्रेजी राज की 1913 से 1947 तक थी। हॉलीवुड की देसी भाषाओं में डब फिल्मों के प्रचलन से अंतत: हॉलीवुड की फिल्मों को दूरगामी नुकसान होगा और देसी भाषा के दर्शकों को अपनी भाषा में अपने दर्शकों के लिए जुगाड़ करके उत्कृष्ट फिल्म बनाने की प्रेरणा मिलेगी। विवेकानंद ने काफी पहले यही तो कहा था कि पश्चिमी तकनीक और भारतीय संस्कृति का समन्वय भारत को एक बार फिर विश्व- गुरू बनायेगा। इसमें विवेकानंद जी एक जगह समय की गति को पढ़ने में चूक गए थे। उन्होंने कहा था कि भारत के दबे - कुचले वर्गों को यदि सांस्कृतिक रूप से आगे बढ़ना है तो उन्हें संस्कृत सीखनी होगी। गांधी और टैगोर ने बाद में कहा कि भारत को अपना स्वाभाविक विकास चाहिए तो भारतीयों को लोकभाषा या मातृभाषा सीखनी होगी। शिक्षा शास्त्रीय भाषा में नहीं मातृभाषा या लोकभाषा में होनी चाहिए। आज व्यावहारिक स्तर पर शास्त्रीय चर्चा की भाषा अंग्रेजी हो गई है और लोकविमर्श देसी भाषाओं या हाइब्रिड (बोलचाल की मिश्रित भाषा जिसमें अंग्रेजी समेत कई भाषाओं के शब्द होते हैं) भाषा हो गई है। हिन्दी एक लोक भाषा है। यह वाचिक परम्परा, बोलचाल की राष्ट्रीय भाषा बनने की प्रक्रिया में है। दुनिया में बसने वाले भारतीय मूल के अधिकांश लोग किसी-न-किसी रूप में हिन्दी फिल्में अवश्य देखते हैं। भले ही वे हिन्दी पढ़-लिख नहीं पाते, लेकिन हिन्दी फिल्में फिर भी देखते हैं चाहे सब टाइटिल के सहारे ही क्यों नहीं देखते। तमिल, मलयालम, कन्नड, तेलगु, बंगाली, मराठी, गुजराती, पंजाबी, उड़िया, असमियां, भोजपुरी आदि भारतीय भाषाओं में भी शुरू से उत्कृष्ट फिल्में बनती रही हैं। इनमें से कुछ फिल्मों, खासकर भोजपुरी फिल्मों का प्रसार इधर भारतीय मूल के लोगों में बढ़ा है, इसके बावजूद इन देसी भाषाओं के फिल्मकारों की महत्वाकांक्षा हिन्दी फिल्म बनाने की अक्सर रहती है। जिस तरह अधिकंाश भारतीय विद्वान प्रस्थानत्रयी (ब्रह्म-सूत्र, उपनिषद, भगवद गीता) पर अपना भाष्य अवश्य लिखना चाहते हैं, उसी तरह भारत के अधिकांश फिल्मकार हिन्दी में अपनी फिल्म अवश्य बनाना चाहते हैं। हॉलीवुड की फिल्मों को असली चुनौती भारत से ही मिलने वाली हैं चूँकि चीन, जापान और अन्य गैर-पश्चिमी देशों में पश्चिमी सिने सिध्दांत, कथा कहने के पश्चिमी स्टीरियोटाइप एवं कैनन हावी हो चुके हैं। झ्ररान के लोग इस्लामी संस्कृति को अपने सिनेमा में स्थापित करने की भरसक कोशिश कर रहे हैं लेकिन कम से कम अठारहवीं शताब्दी से इस्लामी कला चिन्तन और तत्व मीमांसा में निरंतरता एवं सृजनात्मकता का अभाव रहा है। मूर्ति चित्रण, नाटक एवं संगीत के बारे में ऐसे भी इस्लामी सिनेमा एवं मूर्तिकला तथा इस्लाम में संगीत की भूमिका के बारे में गैर सूफी चिन्तकों में काफी विवाद रहा है। अत: ईरानी सिनेमा ईरान के बाहर हॉलीवुड की फिल्मों का विकल्प बन सकता है ऐसा तो फिलहाल ईरान के लोग भी बहुत आशान्वित नहीं हैं। अत: केवल भारतीय मूलत: हिन्दी सिनेमा ही गैर पश्चिमी मुल्कों और पश्चिम में रहने वाले गैर-पश्चिमी मूल के दर्शकों के बीच लोकप्रिय हो सकता है। धीरे-धीरे पश्चिम के उत्तार आधुनिक दर्शकों का ध्यान भी भारतीय सिनेमा के वैकल्पिक विमर्श पर जा सकता है। इसकी दिशा में धीरे-धीरे भारतीय सिनेमा बढ़ रहा है। परन्तु अभी काफी तैयारी करनी होगी। सिध्दि अभी नहीं मिली है। अभी भारतीय सिनेमा की साधनावस्था चल रही है। हिन्दी सिनेमा का स्वर्णकाल आना अभी बाकी है। थीम एवं प्रस्तुति की दृष्टि से चालीस एवं पचास (1940 एवं 50) के दशक को स्वर्णकाल मानने का चलन है। इस दौरान कुछ अच्छी फिल्में बनी थी लेकिन ज्यादातर फिल्मों पर धर्म एवं समाज सुधार के उन्नीसवें सदी के फार्मूले हावी थे। इन फार्मूलों का जन्म अंग्रेजी राज की भारतीय दृष्टि से घोर निराशा जनक परिस्थिति में पश्चिमी मानदंडों पर हुआ था। पारम्परिक तकनीक, पध्दति, दर्शन एवं संस्थाओं को कालबाह्य मान लिया गया था और हर पश्चिमी चीज को अच्छी और बेहतर मानकर इनको भारतीय समाज में प्रचलित बनाने के लिए, समाज एवं धर्मसुधार करने के लिए आंदोलन चलाया जा रहा था। भारत का तथाकथित बुध्दिजीवी या यथार्थवादी सिनेमा पश्चिमी वस्तुओं, विचारों एवं संस्थाओं के प्रसार के लिए विज्ञापन करती नजर आती हैं। उस वक्त की कई महान सामाजिक फिल्मों को समकालीन विज्ञापन फिल्मों की श्रेणी में डाला जा सकता है। अत: तकनीक की दृष्टि से, कथानक के सर्वकालिक मानदंडों की दृष्टि से 1940 या 50 के दशक को स्वर्णयुग मानने में कई समस्यायें हैं। इस दृष्टि से 1960 या 1970 का दशक को पतन का युग कहना गलत है। संक्रमण काल है। भारत के लिए भी और भारतीय सिनेमा के लिए भी। 1960 के दशक में भारतीय समाज में समृध्दि दिखने लगती है। रंगीन सिनेमा में इस समृध्दि को प्रस्तुत् करने का चलन बढ़ता है। 1964 में नेहरू युग का अंत हो जाता है। 1962 में चीन से हुई शर्मनाक हार पर हकीकत (1964) जैसी फिल्म बनती है। 1965 में वक्त जैसी फिल्म बनती है। 1966 में तीसरी कसम जैसी फिल्म बनती है। उपकार (1967) बनती है। आराधना (1969) बनती है। आनंद (1970), आंधी (1975), शोले (1975) बनती है।

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