Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

जीवन संगीत

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जीवन संगीत

 

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शिव सूत्र में नाद ब्रहम की महत्ता स्थापित हुई है। शिव कहते हैं कि तार वाले वाद्यों की ध्वनि सुनते हुए उसकी संयुक्त केंद्रीय ध्वनि को सुनो। इसको सुनते हुए तुम सर्व व्यापकता को उपलब्ध हो जाओगे। किसी भी वाद्य में कई स्वर होते हैं। सजग रहने पर ही उसका केंद्रीय स्वर - स्वरों का मेरूदंड पकड़ में आता है। उसी केंद्रीय स्वर के चारों ओर उस वाद्य के अन्य सभी स्वर घूमते हैं। उसकी गहनतम संगीत धारा (नाद) को सुनने की कोशिश करने पर ही यह अनुभव में आता है कि वही स्वर अन्य सभी स्वरों को सम्हाले रहता है। संगीत की भी रीढ़ होती है, मेरूदंड होता है। उसे ही नाद ब्रहम या केवल नाद कहते हैं। किसी भी संगीत में अन्य स्वर तो आते - जाते रहते हैं, विलीन होते रहते हैं, लेकिन नाद ब्रहम (केंद्रीयतत्व) सतत प्रवाहमान रहता है। केवल पारखी कान उसको सुन पाते हैं। केवल अनुभवी लोग इस नाद ब्रहम को पकड़ पाते हैं। संगीत सुनना ध्यान लगाने जैसी तकनीकी क्रिया है। सभी संस्कृति में संगीत का प्रयोग बुनियादी रूप में ध्यान को गहन बनाने के लिए किया जाता रहा है। भारतीय संगीत की विकास तो विशेष रूप से ध्यान की विधि के रूप में ही हुआ है। इसी तरह, भारतीय नृत्य का विकास भी योग (लय योग) एवं ध्यान की विधि की तरह हुआ है। संगीतज्ञ या नर्तक की साधना को देखने के लिए दर्शक एवं श्रोता के लिए भी ध्यान - मग्न होना आवश्यक है। यदि नृत्य या संगीत में ध्यान नहीं है तो वह व्यक्ति नर्तक या संगीतज्ञ न होकर मात्र टेक्नीशियन ही है। वह बड़ा या अनुभवी टेक्नीशियन हो सकता है, लेकिन तब उसके गीत - संगीत में आत्मा नहीं होती, केवल नृत्य या गीत का शरीर या रूप शैली भर होता है। आत्मा तो तब होती है जब नर्तक - संगीतज्ञ लय में हो। वह नर्तक न होकर नृत्य बन जाए, संगीतज्ञ न रहकर गीत में रूपांतरित हो जाए। सितार या बांसुरी या वीना बजाते हुए संगीतज्ञ केवल वाद्य ही नहीं बजाता, वह अपने भीतर अपने बोध को भी जगा रहा होता है। बाहर सितार बजता है और उसका सघन होश भीतर गति करता है। संगीत बाहर बहते रहता है, लेकिन वह संगीत के अंतरस्थ केद्र के प्रति सदा सजग बना रहता है। वह समाधि लाता है। वह आनंद लाता है। वह शिखर बन जाता है। कुमार गंधर्व ऐसे ही संगीतज्ञ थे। उनका बेटा ऐसा नहीं है। अत: वह भीख मांग रहा है। वह मात्र संगीत का टेकनिसियन निकला। उसने संगीत को शराब की तरह उपयोग किया। उसने आत्मानुभूति के लिए नहीं आत्म - विस्मरण के लिए संगीत का उपयोग किया। अत: उसे उस तरह के सुधिश्रोता नहीं मिले जो उसके महान पिता को मिलते रहे थे। कुमार गंधर्व के गायन में आत्मा थी। वे गाते नहीं थे गीत बन जाते थे। उनका पुत्र अच्छा गायक है। अपने जीवन को संगीतमय बनाता है। संगीत में नाद ब्रहम की अनुभूति का अवसर होता है। वर्णारम में आत्मानुभूति के लय को प्राप्त करने का अवसर होता है। आत्मानुभूति पुरूषार्थ है। ब्रहमानुभूति परम पुरूषार्थ है। इसी अर्थ में बुध्द एवं गांधी ने वर्णाश्रम धर्म को सनातन धर्म का आधारस्तंभ स्वीकार किया है। वर्णाश्रम की व्यवस्था सभ्यतामूलक सामाजिक व्यवस्था है। जबकि जाति की व्यवस्था स्थानीय सामुदायिक व्यवस्था है। जाति की व्यवस्था जन्मना होती है जबकि वर्णाश्रम की व्यवस्था गुण, कर्म और दीक्षा पर आधारित होती है। एक जाति सामान्यत: एक स्थान विशेष में ही पायी जाती है। जबकि वर्णाश्रम की व्यवस्था एक संरचात्मक व्यवस्था है जो अखिल भारतीय स्तर पर कायम की गई थी। लंबी गुलमी के दौर में वर्णाश्रम धर्म का पतन हुआ और जाति व्यवस्था रह गई। लेकिन मुस्लिम शासकों और ब्रिटिश शासकों के बीच भी वर्ण से मिलती - जुलती वर्ग की व्यवस्था थी। वर्ग में भी कायत्मिक विभाजन होता है। वर्गगत अधिकार होते हैं। लेकिन वर्ग व्यवस्था में वर्ग की तरह कर्त्तव्यों की सुपरिभाषित     व्यवस्था नहीं होती है। हिन्दू व्यवस्था के केन्द्र में सतोगुण और ब्राहमण होते हैं। मुस्लिम व्यवस्था के केन्द्र में बादशाह और सामन्त होते हैं जो क्षत्रिय वर्ण से मिलते - जुलते हैं। अंग्रेजी पूंजीवादी व्यवस्था के केन्द्र में बादशाह और पूंजीपति होते हैं जो वैश्य वर्ण से मिलते - जुलते हैं। मुस्लिम व्यवस्था धार्मिक जोश और तलवार की नोक पर खड़ी की जाती रही है। पूंजीवादी व्यवस्था पूंजी और तोप की मदद से खड़ी की जाती रही है। जबकि सनातनी वर्ण व्यवस्था का आधार नैसर्गिक गुणों का संगीतमय समन्वय रहा है। सनातन धर्म कर्म के सिध्दांत और पुनर्जन्म की धारणा पर आधारित है। इस्लाम धर्म में कर्म के सिध्दांत तो एक स्तर पर स्वीकारे जाते हैं लेकिन पुनर्जन्म की धारणा नहीं स्वीकारे जाते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था भाग्य या ईश्वरीय कृपा से प्राप्त संयोग (चांस) और प्रशिक्षित श्रम पर आधारित होती है इसमें कर्म और पुनर्जन्म का सिध्दांत नहीं होता। पूंजीवादी व्यवस्था प्राचीन या मध्यकाल की व्यवस्था में संभव नहीं थी। इसका जन्म के काल्विन के प्रोटेस्टैंट विचार - धारा के जन्म के साथ - साथ पश्चिमी यूरोप में विकसित होकर पूरे विश्व में लोभ, लालच और तोप के दाब से फैलाया गया।

इसके विपरीत सनातन धर्म एक नैसर्गिक व्यवस्था है जो प्रकृति की गोद में समन्वयवादी दृष्टिकोण के कारण काफी हद तक अपने आप विकसित हुआ और विचार, तर्क एवं आस्था के कारण फैला। यह प्रकृति, मनुष्य और नियति के परस्पर संवाद के कारण फैला। इस संवाद की अनेक विधियां रही हैं।

 

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